________________ 510] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं। प्रोसन्नदोष-हिंसा आदि से निवृत्त न होने के कारण रौद्रध्यानी बहुधा हिसादि में से किसी एक में प्रवृत्ति करता है / बहुलदोष-रौद्रध्यानी हिंसादि सभी दोषों में प्रवृत्त होता है / अज्ञानदोष-प्रज्ञानवश या कुशास्त्रों के संस्कारवश नरकादि के कारणभूत अधर्मस्वरूप हिसादि में धर्मबुद्धि से उन्नति के लिए प्रवृत्ति करना 'अज्ञानदोष' है / अथवा 'नानादोष'-हिंसादि के विविध उपायों में अनेक बार प्रवृत्ति करना 'नानादोष' है। ग्रामरणान्तदोष-मरणपर्यन्त हिंसादि ऋर कार्यों में अनुताप (पश्चात्ताप) न होना तथा हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना पामरणान्तदोष है। जैसे--कालसौकरिक (कसाई) / जो रौद्रध्यानी कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है, वह दूसरे के दुःख, कष्ट एवं संकट में तथा पापकार्य करने में प्रसन्न होता है, उसे इहलोक-परलोक का भत्र नहीं होता, उसके मन में दयाभाव बिलकुल नहीं होता। कुकृत्य करने का पछतावा भी नहीं होना / धर्म और शुक्ल ध्यान को चतुष्प्रत्यवतार कहा गया है, जिसका अर्थ है-भेद, लक्षण, बालम्बन और अनुप्रेक्षा, इन चार लक्षणों से जिसका विचार किया जाए / धर्मध्यान-श्रत-चारित्ररूप धर्मसहित ध्यान धर्मध्यान है अथवा धर्म अर्थात् जिनाज्ञायुक्त पदार्थ के स्वरूपपर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है या सुत्रार्थ की साधना करने, महाबतादि को ग्रहण करने, बन्ध-मोक्ष, गति-प्रागति प्रादि हेतुनों के विचार करने में चित्त को एकाग्र करना तथा पंचेन्द्रिय-विषयों से निवृत्ति एवं प्राणियों के प्रति अनुकम्पाभाव प्रादि धर्मों में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है / इसके 4 भेद हैं। आज्ञाविचय-जिनाज्ञा को सत्य मानकर उसके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखना, जिनोक्त शास्त्रों में मरूपित तत्त्वों का चिन्तन-मनन करना, वीतराग-प्रशप्त कोई तत्व समझ में न आए तो भी यह विचार करे कि चाहे मुझे मंदबुद्धिवश समझ में न आए, किन्तु वीतराग सर्वज्ञ कथित होने से यह वचन सर्वथा सत्य ही है, इसके असत्य होने का कोई कारण नहीं है। इस प्रकार वीतराग वचनों का सतत चिन्तन-मनन करना, संदेहरहित होकर मन को उनमें एकाग्र करना प्राज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है। अपायविचय-राग-द्वप, कषाय, विषयासक्ति, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, अशुभयोग और क्रियाओं आदि से होने वाली इहलौकिक-पारलौकिक हानियों तथा कुपरिणामों का विनार एवं चिन्तन करना अपायविचय है / इन अपायों-दोषों से होने वाले दुष्परिणामों का चिन्तन करने वाला जीव इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करने में तत्पर रहता है, इनसे दूर रह कर स्वपरकल्याण साधना करता है। विपाकवित्रय-शुद्ध पात्मा ज्ञान-दर्शन और मुखादिरूप है, किन्तु कर्मों के कारण प्रात्मा के ये निजगुण दवे हुए हैं / कर्मों के वशीभूत होकर जीव चारों गतियों में भ्रमण करती है। सुख-दुःख नौभाग्य-दुर्भाग्य, सम्पत्ति-विपत्ति आदि जीवों के पूर्वकृत कर्मों के ही फल हैं। अपने द्वारा उपाजित कर्मों के सिवाय जीव को दूसरा कोई भी सुख-दुःख देने वाला नहीं है / इस प्रकार कर्म विषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाकविचय धर्मध्यान है।। ___ संस्थानविचय--धर्म स्तिकायादि 6 द्रव्य, उनको पर्याय, जीव-अजीव के प्राकार, उत्पादव्यय-ध्रौव्य, लोकस्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक, वर्ग प्रादि का प्राकार, लोकस्थिति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org