________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] आर्तध्यान : प्रकार और स्वरूप--दुःख या पीड़ा अथवा अत्यधिक चिन्ता के निमित्त से होने वाला दुःखी प्राणी का निरन्तर चिन्तन प्रार्तध्यान कहलाता है। मनोज्ञ वस्तु के वियोग और अमनोज्ञ वस्तु के संयोग आदि कारणों से चित्त चिन्ताकुल हो जाता है, तब आर्तध्यान होता है / अथवा मोहवश राज्य, शय्या, प्रासन, वस्त्राभूषण, रत्न, पंचेन्द्रिय सम्बन्धी मनोज्ञ विषय अथवा स्त्री, पुत्र आदि स्वजनों के प्रति अत्यधिक इच्छा, तृष्णा, लालसा एवं ग्रासक्ति होने से भी प्रार्तध्यान होता है / प्रार्तध्यान के 4 भेद हैं अमनोज्ञ-वियोगचिन्ता, मनोज्ञ-अवियोगचिन्ता, रोगादि-वियोगचिन्ता एवं भोगों का निदान / इनमें से पहले और तीसरे आर्तध्यान का कारण द्वेष है और दूसरे व चौथे का कारण राग है / आर्तध्यान का मूल कारण अज्ञान है / ज्ञानी तो कर्मबन्धन को काटने का ही सदा उपाय करता है / वह कर्मबन्धन को गाढ करने के कारण को नहीं अपनाता। प्रार्तध्यान संसार को बढ़ाने वाला है और सामान्यतया तिर्यञ्चगति में ले जाता है। मूलपाठ में प्रार्तध्यान के क्रन्दनता आदि जो चार लक्षण बताए हैं, वे इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग और वेदना के निमित्त से होते हैं / रौद्रध्यान : स्वरूप और प्रकार-हिंसा, असत्य, चोरी तथा धन आदि की रक्षा में अहर्निश चित्त को जोड़ना रौद्रध्यान' है। रौद्रध्यान में हिंसा आदि के प्रति क्रूर परिणाम होते हैं। अथवा हिंसा में प्रवृत्त प्रात्मा द्वारा दूसरों को रुलाने या पीड़ित करने वाले व्यापार का चिन्तन करना भी रौद्रध्यान है। अथवा छेदन, भेदन, काटना, मारना, पीटना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना इत्यादि ऋर कार्यों में जो राग रखता है, जिसमें अनुकम्पाभाव नहीं है, उस व्यक्ति का ध्यान भी रौद्र ध्यान कहलाता है / रौद्रध्यान के हिसानुबन्धी आदि चार भेद हैं / हिसानुबन्धी-प्राणियों पर चाबुक आदि से प्रहार करना, नाक-कान आदि को कील से बीध देना, रस्सी, लोहे की शृखला (सांकल) आदि से बाँधना, आग में झौंक देना, डाम लगाना, शस्त्रादि से प्राणवध करना, अंगभंग कर देना आदि तथा इनके जैसे क्रूर कर्म करते हुए अथवा न करते हुए भी क्रोधवश होकर निर्दयतापूर्वक ऐसे हिंसाजनक कुकृत्यों का सतत चिन्तन करना तथा हिंसाकारी योजनाएँ मन में बनाते रहना हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है / मषानबन्धी-दसरों को छलने. ठगने. धोखा एवं चकमा देने तथा छिप कर पापाचरण करने. झूठा प्रचार करने, झूठी अफवाहें फैलाने, मिथ्या-दोषारोपण करने की योजना बनाते रहना, ऐसे पापाचरणी को अनिष्टसूचक वचन, असभ्य वचन, असत् अर्थ का प्रकाशन, सत्य अर्थ का अपलाप, एक के बदले दूसरे पदार्थ आदि के कथनरूप असत्य वचन बोलने तथा प्राणियों का उपघात करने वाले वचन कहने का निरन्तर चिन्तन करना मृषानुबन्धी रौद्रध्यान है / स्तेयानुबन्धी (चौर्यानुबन्धी)-तीव्र लोभ एवं तीव्र काम, क्रोध से ब्याप्त चित्त वाले पुरुष की प्राणियों के उपघातक, परनारीहरण तथा परद्रव्यहरण आदि कुकृत्यों में निरन्तर चित्तवृत्ति का होना, स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान है। संरक्षणानुबन्धी-शब्दादि पांच विषयों के साधनभूत धन की रक्षा करने की चिन्ता करना और 'न मालूम दूसरा क्या करेगा?' इस आशंका से दूसरों का उपघात करने की कषाययुक्त चित्तवृत्ति रखना संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है / रागद्वेष से व्याकुल अज्ञानी जीव के उपर्युक्त चारों प्रकार का रौद्रध्यान होता है। यह कुध्यान संसार को बढ़ाने वाला और प्रायः नरकगति में ले जाने वाला होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org