________________ 508] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 244. धम्मस्स गं माणस्स चत्तारि प्रालंबणा पन्नत्ता, तं जहा-वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा धम्मकहा। [244] धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे हैं / यथा--(१) वाचना, (2) प्रतिपृच्छना, (3) परिवर्तना और (4) धर्मकथा / 245. धम्मस्स णं माणस्स चत्तारि अणुपेहाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-एगत्ताणुपेहा अणिच्चाणुपेहा असरणाणुपेहा संसाराणुपेहा / 245 } धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं। यथा--(१) एकत्वानुप्रेक्षा, (2) अनित्यानुप्रेक्षा, (3) अशरणानुप्रेक्षा और (4) संसारानुप्रेक्षा / / 246. सक्के झाणे चउध्विधे चउपडोयारे पन्नत्ते, तं जहा-पुहत्तवियक्के सवियारी, एमत्तवियव प्रदियारी, सुहमकिरिए अनियट्टी, समोछिन्नकिरिए अप्पडिवाई। [246 शुक्लध्यान चार प्रकार का है और चतुष्प्रत्यवतार कहा गया है। यथा--(१) पृथक्त्ववितर्क-सविचार, (2) एकत्ववितर्क-अविचार, (3) सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती और (4) समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती। 247. सुक्कस्स गं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा-खंती मुत्ती प्रज्जवे महवे / [244, शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे हैं / यथा-(१) क्षान्ति(क्षमा), (2) मुक्ति (निर्लोभता या अनासक्ति), (3) आर्जव (सरलता) और (4) मार्दव ( मृदुता या नम्रता) / 248. सुक्कस्स गं माणस्स चत्तारि प्रालंबणा पन्नत्ता, तं जहा-अवहे असम्मोहे विवेगे विप्रोसगे। [248] शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गए हैं / यथा--(१) अन्यथा, (2) असम्मोह, (3) विवेक और (4) व्युत्सर्ग / 246. सुक्कस्स णं झागरस अत्तारि अणुहायो पन्नत्ताश्रो, तं जहा- अणंतवत्तियाणुणेहा विप्परिणामाणुप्पेहा असुभाणपेहा प्रवायाणुपेहा / से तं झाणे। [246] शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं। यथा--(१) अनन्ततितानुप्रेक्षा, (2) विपरिणामानुप्रेक्षा, (3) अशुभाऽनुप्रेक्षा और (4) अपायानुप्रेक्षा। यह हुआ ध्यान का समग्र वर्णन / विवेचन-ध्यान : स्वरूप और प्रकार--मन को किसी एक वस्तु में एकाग्र करना ध्यान है / छाग्थों का ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक का होता है / उत्तम संहनन वालों का ध्यान अन्तर्मुहुर्त से अधिक रह सकता है / एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान के संक्रमण होने पर तो ध्यान का प्रवाह चिरकाल तक भी रह सकता है। अर्हन्तों के लिए तो योगों का निरोध करना ही ध्यानरूप हो जाता है। ध्यान के 4 प्रकार हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org