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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [211 [7 उ.] गौतम ! एक जीव, एक भव में जघन्य एक जीव का, दो जोवों का अथवा तीन जीवों का, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ तक) जीवों का पुत्र हो सकता है। 8. [1] एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहन्नेणं इक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति / [2] से केणठेणं मते ! एवं बुच्चइ-जाव हवमागच्छंति ? गोयमा! इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नाम संजोए समुप्पज्जइ / ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, 2 तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उपकोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्यमागच्छति / से तेणठेणं जाव हव्वमागच्छंति / [8-1 अ.] भगवन् ! एक जीव के एक भव में कितने जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? [8-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक, दो अथवा तीन जीव, और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं / [8-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य एक........."यावत् दो लाख से नौ लाख तक जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? [8-2 उ.] हे गौतम ! कर्मकृत (नामकर्म से निष्पन्न अथवा कामोत्तेजित) योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक (सम्भोग निमित्तक) संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह (पुरुष के वीर्य और स्त्री के रक्तरज) का संचय (सम्बन्ध) होता है, फिर उसमें से जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं / हे गौतम ! इसीलिए पूर्वोक्त कथन किया गया है।' 6. मेहणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए प्रसंजमे कज्जइ ? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे रूपनालियं वा बूरनालियं वा तत्तणं कणएणं समभिधसेज्जा / एरिसए णं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / [6 प्र.] भगवन् ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? 1. आधुनिक शरीर विज्ञान के अनुसार पुरुष के शुक्र में करोड़ों जीवाणु होते हैं, किन्तु वे धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और एक या दो जीवाणु जीवित रहते हैं जो गर्भ रूप में आते हैं। 'कणएणं' कनकः लोहमय: ज्ञेयः / कनक शब्द लोहमयी शलाका अर्थ में समझ लेना चाहिए। भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका भा. 2, पृ. 831 में 'कनकस्य शलाकार्थों लभ्यते' लिखा है। -भग. मु. पा. टि. प. 99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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