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________________ 7] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [15-1 प्र.] भगवन् ! क्या श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [15-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे भी वेदन करते हैं। [2] कहं णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेति ? गोयमा! तेहि तेहि नाणंतरेहि सणंतरेहि चरितंतरेहि लिगंतरेहि पवयणंतरेहि पावयणंतरेहि कप्पतरोहिं मग्गंतरेहि मतंतरेहि भंगतरेहि नयंतरेहि नियमंतरेहि पमाणंतरेहि संकिया कंखिया वितिकिछिता मेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना, एवं खलु समणा निग्गंया कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति / / [15-2 प्र.] भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस प्रकार करते हैं ? [15-2 उ.] गौतम ! उन-उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावनिकान्तर कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। [3] से नणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिहि पवेइयं ? हंता, गोयमा ! तमेव सच्चं नोसंकं जाव पुरिसककारपरक्कमे इ वा / सेवं भंत ! सेवं भंते ! / / तइनो उद्देसो सम्मत्तो 1-3 // [15.3 प्र.] भगवन् ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है ? [15-3 उ.] हाँ, गौतम ! वही सत्य है, नि:शंक है, जो जिन भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है, यावत् पुरुषकार-पराक्रम से निर्जरा होती है; (तक सारे ग्रालापक समझ लेने चाहिए।) गौतम–हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यही सत्य है ! विवेचन--चौबीस दण्डकों तथा श्रमण निर्ग्रन्थों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तरप्रस्तुन दो सूत्र में से प्रथम सूत्र में चौबीस दण्डक के जोवों के 6 अवान्तर प्रश्नोत्तरों द्वारा तथा श्रमणनिर्ग्रन्थों के कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। पृथ्वीकाय कर्मवेदन कैसे करते हैं ? --जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त नहीं, जो भले-बुरे को पहिचान नहीं कर पाते वे पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बेदन कैसे करते हैं ? इस प्राशय से श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछा गया है / तर्क आदि का स्वरूप यह इस प्रकार होगा', इस प्रकार के विचार-विमर्श या ऊहापोह को तर्क कहते हैं / संज्ञा का अर्थ है-अर्थावग्रहरूप ज्ञान / प्रज्ञा का अर्थ है-नई-नई स्फुरणा वाला विशिष्ट ज्ञान या बुद्धि / स्मरणादिरूप मतिज्ञान के भेद को मन कहते हैं / अपने अभिप्राय को शब्दों द्वारा व्यक्त करना वचन कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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