________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [445 (7) देवों द्वारा अपने आगमन के उद्देश्य और उसमें प्राप्त सफलता का अथ से इति तक गौतमस्वामी से निवेदन / प्रतिफलित तथ्य---इस समन वृत्तान्त पर से चार तथ्य प्रतिफलित होते हैं(१) देवों की तथा सर्वज्ञ तीर्थंकर को क्रमशः प्रचण्ड मनःशक्ति और प्रात्मशक्ति / (2) सत्य की प्राप्ति होने पर देव हृष्ट-तुष्ट, विनम्र और धर्मात्मा के पर्युपासक बन जाते हैं। (3) सत्यार्थी गौतमस्वामी की प्रबल ज्ञानपिपासा। (4) अपने से निम्नगुणस्थानवर्ती देवों के पास सत्य-तथ्य जानने का भगवान् का परामर्श मान कर विनम्रमूति जिज्ञासुशिरोमणि थी गौतमस्वामी का देवों के पास ममन, और यथार्थमन:समाधान से सन्तोष / ' ___ कठिन शब्दों के विशेष अर्थ-अभणुण्णाए = अाज्ञा प्राप्त होने पर। खिप्पामेव - शीघ्र ही। पहारस्थ गमणाए जाने के लिए मन में धारणा की / एज्जमाणं = पाते हुए / प्रभुति = उठ खड़े होते हैं / पच्चुवागच्छंति = सामने आते हैं / भाणंतरिया ध्यानान्तरिका---एक ध्यान समाप्त करके जब तक दूसरा ध्यान प्रारम्भ न किया जाए उसके बीच का समय / देवों को संयत, असंयत, एवं संयतासंयत न कहकर 'नो-संयत"कथन-निर्देश 20. 'भाते !' त्ति भगवं गोतमे समणं जाव एवं वदासी-देवा गं भ'ते ! 'संजया' ति क्त्त वं सिया ? गोतमा ! णो इगट्ठ सम8। अभक्खाण मेयं देवाणं / [20 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया यावत् इस प्रकार पूछा--'भगवन् ! क्या देवों को 'संयत' कहा जा सकता है ? [20 उ.] 'गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (यथार्थ सम्यक् ) नहीं है, यह (देवों को 'संयत' कहना) देवों के लिए अभ्याख्यान (मिथ्या आरोपित कथन) है। 21. मते ! 'असंजता ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! णो इण? समट्ठ। णिटुरवयणमेयं देवाणं। [21 प्र.] भगवन् ! क्या देवों को 'असंयत' कहना चाहिए ? [21 ए.] गौतम ! यह अर्थ (भी) समर्थ (सम्यक् अर्थ) नहीं है / देवों के लिए ('देव असंयत हैं') यह (कथन) निष्ठुर वचन है / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग 1, पृ. 198-199 2. भगवतीसूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 221 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org