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________________ 278 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 34-1 उ० गौतम ! (ईशानेन्द्र द्वारा पूर्वप्रदशित) वह दिव्य देवऋद्धि (उसके) शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई है। [2] से केणट्ठणं भंते ! एवं बुच्चति सरीरं गता, सरोरं अणुपविट्ठा ? गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहश्रो लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तोसे णं कूडागार० जाब (राज. पत्र 56) कूडागारसालादिद्रुतो भाणियन्वो। [34.2 प्र०] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह दिव्य देवऋद्धि शरीर में चली गई और शरीर में प्रविष्ट हो गई? [34-2 उ०] गौतम ! जैसे कोई कूटाकार (शिखर के साकार की) शाला हो, जो दोनों तरफ से लीपी हुई हो, गुप्त हो, गुप्त-द्वारवाली हो, निर्वात हो, वायुप्रवेश से रहित गम्भीर हो, थावत् ऐसी कुटाकारशाला का दृष्टान्त (यहां) कहना चाहिए। विवेचन-कुटाकारशाला के दृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्र को ऋद्धि की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र में ईशानेन्द्र की पनः अदश्य हई ऋद्धि, प्रभाव एवं दिव्यकान्ति के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी द्वारा किये गए प्रश्न का भगवान् द्वारा कुटाकारशाला के दृष्टान्तपूर्वक किया गया समाधान है। कुटाकारशाला दृष्टान्त—जैसे (पूर्वोक्त) शिखराकार कोई शाला (घर) हो और उसके पास बहुत-से मनुष्य खड़े हों, इसी बीच आकाश में बादल उमड़ घुमड़कर आ गए हों और बरसने की तैयारी हो, ऐसी स्थिति में वे तमाम मनुष्य वर्षा से रक्षा के लिए उस शाला में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार ईशानेन्द्र की वह दिव्य ऋद्धि, देव-प्रभाव एवं दिव्य कांति ईशानेन्द्र के शरीर में प्रविष्ट हो गई। ईशानेन्द्र का पूर्वभव : तामली का संकल्प और प्राणामाप्रवज्या ग्रहण 35. ईसाणेणं भाते ! देविदेणं देवरण्णा सा दिव्या देविड्ढी दिव्या देवजुती दिव देवाणुभागे किण्णालद्ध? किग्णापत्ते? किग्णा अभिसमन्नागए ? के वा एस प्रासि पुन्वभवे ? किणामए वा? किंगोत्ते वा ? कतरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा? किंवा सोच्चा? कि वा दच्चा? कि वा भोच्चा? कि वा किच्चा ? कि वा समायरित्ता? कस्स वा तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि पारियं धम्मियं सुधयणं सोच्चा निसम्म जंणं ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलित्ती नाम नगरी होत्था। वपणनो / तत्थ णं तामलित्तीए नगरीए तामली नाम मोरियपुत्ते गाहावती होस्था। अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था / [35 प्र०] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधु ति (कान्ति) और दिव्य देवप्रभाव किस कारण से उपलब्ध किया, किस कारण से प्राप्त किया और किस हेतु से 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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