________________ तृतीय शतक : उद्देशक१] . [ 279 अभिमुख किया? यह ईशानेन्द्र पूर्वभव में कौन था? इसका क्या नाम था, क्या गोत्र था ? यह किस ग्राम, नगर अथवा यावत् किस सन्निवेश में रहता था? इसने क्या सुनकर, क्या (आहारपानी अादि) देकर, क्या (रूखा-सूखा) खाकर, क्या (तप एवं शुभ ध्यानादि) करके, क्या (शीलव्रतादि या प्रतिलेखन-प्रमार्जन आदि धर्मक्रिया का) सम्यक् आचरण करके, अथवा किस तथारूप श्रमण या माहन के पास से एक भी आर्य (तीर्थकरोक्त) एवं धार्मिक सुवचन सुनकर तथा हृदय में धारण करके (पुण्यपुज का उपार्जन किया,) जिस (पुण्य प्रताप) से देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र ने वह दिव्य देव ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है और अभिमुख की है ? / [35 उ०] हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन समझ लेना चाहिए। उस ताम्रलिप्ती नगरी में तामली नाम का मौर्यपुत्र (मौर्यवंश में उत्पन्न) गृहपति (गृहस्थ) रहता था। वह धनाढ्य था, दीप्तिमान (तेजस्वी) था, और बहुत-से मनुष्यों द्वारा अपराभवनीय (नहीं दबने वाला दबंग) था / 36. तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावतिस्स अन्नया कयाइ पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जिस्था--"अस्थि ला मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणे फलवित्तिविसेसे जेणाहं हिरणेणं वड्ढामि, सुवणेणं वड्ढामि, धणेणं वड्ढामि, धन्नेणं वड्ढामि, पुत्तेहि वड्ढामि, पहि बड्ढामि, विउलधण-कणग-रयण-मणि-मोतिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संतसारसावतेज्जेणं प्रतीच 2 अभिवड्ढामि, तं कि णं अहं पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसोक्खयं उव हेमाणे विहरामि ?, तं जाव च णं में मित्त-नाति-नियग-संबंधिपरियणो आढाति परियाणइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासइ तावता मे सेयं कल्लं पाउपभाताए रयणीए जाव जलते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेत्ता विउलं असण-पाण-खातिम सातिम उवक्खडावेत्ता मित्त-नाति-नियग-संबंधिपरियणं प्रामंतेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरयणं विउलेणं असणपाण-खातिम-सातिमेणं वत्थ-गंध-मल्ला.ऽलंकारेण य सक्कारेता सम्माणेता तस्सेव मित्त-नाइ-नियगसंबंधिपरियणस्स पुरतो जेटु पुत्तं कुटुबे ठावेत्ता तं मित्त-नाति-णियग-संबंधिपरियणं जेटुपुत्तं च आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए फव्वज्जाए पन्वइत्तए / पन्वइते विध णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि --'कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंछठेणं प्रणिक्सित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाम्रो पगिम्भिय पगिम्भिय सूराभिमुहस्स प्रातावणभूमीए पायावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि पायावणभूमोतो पच्चोरुभित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता, तं तिसत्तखतो उदएणं पक्खालेत्ता, तो पच्छा पाहारं पाहारित्तए त्ति कटु" एवं संपेहेइ, 2 कल्लं पाउप्यभायाए जाव जलते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेइ, 2 विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, 2 तो पच्छा हाए कयनलिकम्मे कयकोउमंगलपायच्छिते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहम्घाऽऽभरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए मोयण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org