________________ 280] [ व्याख्याप्रजप्तिसूत्र मंडवंसि सुहासणवरगते / तए गं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरिजणेणं सद्धि तं विउलं असण-पाणखातिम-साइमं प्रासादेमाणे वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। [36] तत्पश्चात् किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर अपर (पश्चिम = पिछली) रात्रि-काल के समय कुटुम्ब जागरिका जागते हुए उस मौर्यपुत्र तामली गाथापति (गृहस्थ) को इस प्रकार का यह अध्यवसाय यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुमा कि-''मेरे द्वारा पूर्वकृत, पुरातन (दानादि रूप में) सम्यक् आचरित, (तप आदि में) सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कृतकों का कल्याणफलरूप प्रभाव अभी तक तो विद्यमान है; जिसके कारण मैं हिरण्य (चांदी) से बढ़ रहा हूँ, सुवर्ण (सोने) से बढ़ रहा हूँ, धन से बढ़ रहा हूँ, धान्य से बढ़ रहा हूँ, पुत्रों से बढ़ रहा हूँ, पशुओं से बढ़ रहा हूँ, तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त वगैर शैलज मणिरूप पत्थर, प्रवाल (मूगा) रक्तरत्न तथा माणिक्यरूप सारभूत धन से अधिकाधिक बढ़ रहा हूँ; (अर्थात्---- मेरे घर में पूर्वकृत पुण्यप्रभाव से पूर्वोक्तरूप में सारभूत धनवैभव आदि बढ़ रहे हैं;) तो क्या मैं पूर्वकृत, पुरातन, (दानादिरूप में) समाचरित यावत् पूर्वकृतकर्मों का (शुभकर्मों का फल भोगने से उनका) एकान्तरूप से क्षय हो रहा है, इसे अपने सामने देखता रहूँ-इस (क्षय = नाश) की उपेक्षा करता रहूँ ? (अर्थात्-मुझे इतना सुख-साधनों का लाभ है, इतना ही बस मान कर क्या भविष्यकालीन लाभ के प्रति उदासीन बना रहूँ? यह मेरे लिए ठीक नहीं है। अत: जब तक मैं चांदी-सोने यावत् माणिक्य आदि सारभूत पदार्थों के रूप में सुखसामग्री द्वारा दिनानुदिन अतीत-अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ और जब तक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, स्वगोत्रीय कुटुम्बोजन, मातृपक्षीय (ननिहाल के) या श्वसूरपक्षीय सम्बन्धी एवं परिजन (दास-दासी आदि), मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी रूप में मानते हैं, मेरा सत्कार-सम्मान करते हैं, मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप. देवरूप. और चैत्य (संज्ञानवान = समझदार अनुभवी) .रूप मानकर विनयपूर्वक मेरी पर्युपासना सेवा करते हैं; तब तक (मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए।) यही मेरे लिए श्रेयस्कर है / अतः रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात का प्रादुर्भाव होते ही (अर्थात् प्रातःकाल का प्रकाश होने पर) यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर मैं स्वयं अपने हाथ से काष्ठपात्र बनाऊँ और पर्याप्त अशन, पान, खादिम और स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार तैयार करा कर, अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी तथा दास-दासी आदि परिजनों को आमंत्रित करके उन्हें सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार के आहार का भोजन कराऊँ; फिर वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला और आभूषण आदि द्वारा उनका सत्कारसम्मान करके उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी और परिजनों के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके (उसे कुटुम्ब का सारा दायित्व सौंप कर), उन मित्र-ज्ञातिजन-स्वजन-परि. जनादि तथा अपने ज्येष्ठपुत्र से पूछकर, मैं स्वयमेव काष्ठपात्र लेकर एवं मुण्डित होकर 'प्राणामा' नाम की प्रवज्या अंगीकार करू और प्रवजित होते ही मैं इस प्रकार का अभिग्रह (संकल्प = प्रतिज्ञा) धारण करूं कि मैं जीवनभर निरन्तर छट्ट-छट्ट (बेले-बेले) तपश्चरण करूगा और सूर्य के सम्मुख दोनों भुजाएं ऊँची करके प्रातापना भूमि में आतापना लेता (कठोर ताप सहता) हुआ रहूँगा और छट्र (बेले) के पारणे के दिन आतापनाभूमि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र हाथ में लेकर ताम्र. लिप्ती नगरी के ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करके भिक्षाविधि द्वारा शुद्धोदन (अर्थात्-केवल भात) लाऊंगा और उसे 21 बार धोकर खाऊँगा।" इस प्रकार तामली गृहपति ने शुभ विचार किया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org