________________ तृतीय शतक : उद्देशक-1] [ 281 इस प्रकार का विचार करके रात्रि व्यतीत होते ही प्रभात का प्रादुर्भाव होने पर यावत् तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्वयमेव लकड़ी का पात्र बनाया। फिर अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चारों प्रकार का आहार तैयार करवाया। तत्पश्चात् उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध और उत्तम वस्त्रों को ठीक-से पहने, और अल्पभार तथा बहुमूल्य आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया। तत्पश्चात् भोजन के समय वह तामली गृहपति भोजनमण्डप में पाकर शुभासन पर सुखपूर्वक बैठा / इसके बाद (आमंत्रित) मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी एवं परिजन आदि के साथ उस (तैयार कराए हुए) विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध आहार का आस्वादन करता (चखता) हुमा, विशेष स्वाद लेता हुना, दूसरों को परोसता हुआ भोजन कराता हुआ-और स्वयं भोजन करता हुआ तामली गृहपति विहरण कर रहा था। 37. जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे प्रायंते चोखे परमसुइभूए तं मित्त जाव परियणं विउलेणं असणपाण० 4 पुष्फ-वस्थ-गंध-मल्लाऽलंकारेण व सक्कारेइ, 2 तस्सेव मित्त-नाइ जाव परियणस्स पुरनो जेट्ठ पुत्तं कुटुम्बे ठावेइ, 2 ता तं मित्त-नाइ-णियग-संबंधिपरिजणं जेदुपुत्तं च प्रापुच्छइ, 2 मुण्डे भवित्ता पाणामाए पन्चज्जाए पव्वइए। पच्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ–'कप्पद मे जावज्जीवाए छठेंछद्रेणं जाव पाहारित्तए' त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, 2 ता जावज्जीवाए छठेछठेणं अनिक्खित्तैगं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाम्रो पगिनिभय 2 सूराभिमुहे प्रातावणभूमीए पातावमाणे विहरइ / छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि प्रातावणभूमोमो पच्चोरुभइ, 2 सयमेव दारमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीय-मन्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खारियाए प्रडइ, 2 सुद्धोयणं पडिग्गाहेइ, 2 तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेह, तम्रो पच्छा प्राहारं प्राहारेइ / [37] भोजन करने के बाद उसने पानी से हाथ धोये, और चुल्ल में पानी लेकर शीघ्र प्राचमन (कुल्ला) किया, मुख साफ करके स्वच्छ हया। फिर उन सब मित्र-ज्ञाति-स्वजन-परिजनादि का विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला, अलंकार प्रादि से सत्कारसम्मान किया / फिर उन्हीं मित्रस्वजन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया-(अर्थात्-उसे कुटुम्ब का भार सौंपा)। तत्पश्चात् उन्हीं मित्र-स्वजन प्रादि तथा अपने ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर और मुण्डित हो कर 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार की। प्राणामा-प्रव्रज्या में प्रवजित होते ही तामली ने इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया-"प्राज से मेरा कल्प यह होगा कि मैं आजीवन निरन्तर छटु-छट्ट (बेले-बेले) तप करूंगा, यावत् पूर्वकथितानुसार भिक्षा विधि से केवल भात (पके हुए चावल) लाकर उन्हें 21 बार पानी से धोकर उनका आहार करूगा।" इस प्रकार अभिग्रह धारण करके वह तामली तापस यावज्जीवन निरन्तर बेले-बेले तप करके दोनों भुजाएँ ऊँची करके आतापनाभूमि में सूर्य के सम्मुख प्रातापना लेता हुआ विचरण करने लगा। बले के पारणे के दिन प्रातापना भभि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गह-समुदाय से विधिपूर्वक भिक्षा के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org