SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] |277 ३-ईशानेन्द्र का भगवान के दर्शन-वंदन के लिए आगमन / ' राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के भगवत्सेवा में प्रागमन-वृत्तान्त का प्रतिदेश—संक्षेप में ईशानेन्द्र के आगमन वृत्तान्त के मुद्दे इस प्रकार हैं (1) सामानिक प्रादि परिवार से परिवृत ईशानेन्द्र ने अवधिज्ञान द्वारा श्रमण भगवान् महावीर को राजगृह में विराजे हुए देख, वहीं से वंदन किया। (2) आभियोगिक देवों को राजगह में एक योजन क्षेत्र साफ करने का आदेश / (3) सेनाधिपति द्वारा सभी देव-देवियों को ईशानेन्द्र की सेवा में उपस्थित होने की घंटारव द्वारा घोषणा। (4) समस्त देव-देवियों से परिवृत होकर एक लाख योजन विस्तृत विमान में बैठकर ईशानेन्द्र भगवद् वंदनार्थ निकला / नन्दीश्वर द्वीप में विश्राम / विमान को छोटा बनाकर राजगृह में विमान से उतर कर भगवान के समवसरण में प्रवेश / भगवान को वंदन-नमस्कार कर पर्यपासना में लीन हुमा। (5) सर्वज्ञ प्रभु की सेवा में गौतमादि महर्षियों को दिव्य नाटकादि विधि दिखाने की इच्छा प्रगट की। उत्तर की अपेक्षा न रखकर वैक्रियप्रयोग से दिव्यमण्डप, मणिपीठिका और सिंहासन बनाए / सिंहासन पर बैठ कर दांए और बाए हाथ से 108-108 देवकुमार-देवकुमारियां निकालीं / फिर वाघों और गीतों के साथ बत्तीस प्रकार का नाटक बतलाया / इसके पश्चात् अपनी दिव्य ऋद्धिवैभव-प्रभाव-कान्ति आदि समेट कर पूर्ववत् अकेला हो गया / (6) फिर अपने परिवार सहित ईशानेन्द्र भगवान् को वंदन-नमस्कार करके वापस अपने स्थान को लौट गया। कूटाकारशालादृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्रऋद्धि की तत्शरीरानुप्रविष्ट-प्ररूपरणा 34. [1] 'भते !' ति भगव गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति, 2 एवं क्यासीअहो णं माते ! ईसाणे देविदे देवराया महिड्ढीए / ईसाणस्स णं भंते ! सा दिव्या देविड्ढो कहिं गता ? कहि अणुपविट्ठा? गोयमा ! सरीरं गता, सरीरं अणुपविट्ठा / [34-1 प्र०] 'हे भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-(पूछा-) 'अहो, भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महाऋद्धि वाला है ! भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह (नाटय-प्रदर्शनकालिक) दिव्य देवऋद्धि (अब) कहाँ चली गई ? कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ टिप्पणी युक्त) पृ० 129 2. (क) रायपसेणीयसुत्त पत्र० 44 से 54 तक का सार / (ख) भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 162-163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy