________________ [व्याख्यानज्ञप्तिसूत्र 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी पावत् विचरण करते हैं। विवेचन-वानरादि-अवस्था में नारक कैसे?—प्रश्न होता है, मूलपाठ में बताया गया है कि वानर आदि जिस समय वानरादि हैं. उस समय वे नारकरूप नहीं हैं, फिर नारकरूप से कैसे उत्पन्न हुए ? इसका समाधान मूल पाठ में ही किया गया है कि ऐसा भगवान् महावीर कहते हैं, भ. महावीर के सिद्धान्तानुसार जो उत्पन्न हो रहा है, वह उत्पन्न हुआ कहलाता है। क्रियाकाल और निष्ठाकाल में अभेद दृष्टि से यह कथन है / अतः यह ठीक ही कहा है कि जो वानरादि नारकरूप से उत्पन्न होने वाले हैं, वे उत्पन्न हुए हैं।' कठिन शब्दार्थ गोलांगूलवसभे—गोलांगूलवृषभे–महान् या श्रेष्ठ अथवा विदग्ध (चतुर बुद्धिमान्) बानर / वृषभ शब्द यहाँ विदग्ध या महान् अर्थ में है। ढंके --कौना। कंके गिद्ध / सिखोमोर / मग्गुए—मेंढक / णिस्सीला---शील-शिक्षाव्रतरहित / णिचया-व्रतरहित। णिग्गुणा---गुणव्रतरहित / जिम्मेरा--मर्दादारहित / णिपच्चवखाणपोसहोववासा-प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित / / / बारहवां शतक : अष्टम उद्देशक सम्पूर्ण / 1. भगवती. अ.त्ति, पत्र 582 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 582 (स) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org