SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोसवां शतक : उद्देशक 9] 7i1 ___E. जंघाचारणस्स णं भंते ! उड्ढ़ केवतिए गतिविसए पन्नते ? गोयमा ! से गं इप्रो एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, स० क० 2 तहि चेतियाई वंदति, तहि वं० 2 ततो पडिनियतमाणे बितिएणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरणं करेति, नं० क० 2 तहि चेतियाई वंदति, तहि० व 2 इहमागच्छति, इहमा० 2 इहं चेतियाई बंबइ / जंघाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते / से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेति, नस्थि तस्स प्राराहणा; से णं तस्स ठाणस्स पालोइयपडिक्कते कालं करेति, अस्थि तस्स पाराहणा। सेव भंते ! जाव विहरति / ॥वीसइमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो // 20 // [9 प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की ऊर्ध्व-गति का विषय कितना कहा गया है ? (9 उ.] गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात में पण्डकवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ ठहर कर चैत्यस्तुति करता है। फिर वहाँ से लौटते हुए दूसरे उत्पात से नन्दनवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ चैत्यस्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से वापस यहाँ ग्रा जाता है। यहाँ पाकर चैत्यस्तुति करता है / इसीलिए हे गौतम ! जंघाचारण का ऐसा ऊर्ध्वगति का विषय कहा गया है। वह जंघाचारण उस (लब्धिप्रयोग-सम्बन्धी प्रमाद-) स्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल कर जावे तो उसकी (चरित्र.) अाराधना नहीं होती। (इसके विपरीत) यदि वह जंधाचारण उस प्रमादस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी अाराधना होती है। __ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--जंघाचारण का शीघ्रतर गति-सामर्थ्य-तीन चुटकी बजाने जितने समय में जंघाचारण 21 वार समग्र जम्बूद्वीप के चक्कर लगाकर लौट पाता है / यह गति विद्याचारण से सात गुणी अधिक शोघ्र है। जंघाचारण को लब्धि का ज्यों-ज्यों प्रयोग होता है, त्यों-त्यों वह अल्प सामर्थ्य वाली हो जाती है, इसलिए वह जाते समय तो एक ही उत्पात में वहाँ पहुंच जाता है, किन्तु लौटते समय दो उत्पात से पहुंचता है।' // वीसवाँ शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, 795-796 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy