________________ [व्याख्याप्रशस्तिसूत्र 6 प्र.] भगवन् ! जंघाचारण को जंघाचारण क्यों कहते हैं ? [6 उ.] गौतम ! अन्तररहित (लगातार) अटुम-पट्टम (तेले-तेले) के तपश्चरण-पूर्वक प्रात्मा को भावित करते हुए मुनि को 'जंघाचारण' नामक लब्धि उत्पन्न होती है, इस कारण उसे 'जंघाचारण' कहते हैं। विवेचन-जंघाचारण का स्वरूप --पूर्वोक्त विधिपूर्वक तेले-तेले की तपश्चर्या करने वाले मुनि को जघाचारण-लब्धि प्राप्त होती है। विद्याचारण की अपेक्षा जंघाचारण की गति मात गुणी अधिक शीघ्र होती है।' जंघाचारण की शीघ्र, तिर्यक् और ऊर्ध्वगति का सामर्थ्य और विषय 7. जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सोहा गीत ? कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे एवं जहेव विज्जाचारणस्स, नवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा। जंधाचारणस्स णं गोयमा! तहा सीहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नत्ते / सेसं तं चेव / 17 प्र. भगवन् ! जंघाचारण की शीघ्र गति कैसी होती है ? और उसकी शीघ्रगति का विषय कितना होता है ? [7 उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप, यावत् (जिसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन से कुछ) विशेषाधिक है, इत्यादि समग्न वर्णन विद्याचारणवत् (जानना चाहिए)। विशेष यह है कि (कोई महद्धिक यावत् तीन चुटकी बजाए, उतने समय में इस समग्र जम्बुद्वीप की) इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र वापस लौटकर आ जाता है। हे गोतम ! जंघाचारण की इतनी शीघ्रगति और इतना शीघ्रगति-विषय कहा है / शेष कथन सब पूर्ववत् है / 8. जंघाचारणस्स गं भंते ! तिरिय केवतिए गतिविसए पन्नत्ते? गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति, रुय० क० 2 तहि चेतियाई वंदति, तहि वं० 2 ततो पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरदीवे समोसरणं करेति, नं० के० 2 तहि चेतियाई वंदति, हि० व 2 इहमागच्छति, इहमा० 2 इह चेतियाई वंदति / जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते / / [8 प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की तिर्थी गति का विषय कितना कहा है ? - उ.] गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात से रुचकवरद्वीप में समवसरण करता है, फिर वहाँ ठहर कर वह चैत्य-वन्दना करता है। चैत्यों की स्तुति करके लौटते समय दूसरे उत्पात से नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण करता है तथा वहाँ स्थित हो कर चैत्यस्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से लौटकर यहाँ पाता है। यहाँ पा कर वह चैत्य-स्तुति करता है / हे गौतम ! जंघाचारण की तिर्की गति का ऐसा (शीघ्र) गतिविषय कहा गया है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 795 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2916 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org