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________________ वीसवां शतक : उद्देशक 9) संगत नहीं हो सकता, क्योंकि एक तो समवसरण तीर्थंकरों के लिए देवों द्वारा रचित धर्मसभास्थल होता है, वह विद्याचारण या जंघाचारण जैसे मुनियों के लिए नहीं होता। दूसरे समवसरण अर्थात् धर्मसभा की रचना करने का वहां कोई औचित्य नहीं, क्योंकि वहाँ कोई श्रोता उनका धर्मोपदेश सुनने नहीं पाता / इसलिए 'समवसरणं करेति' यह वाक्यप्रयोग स्पष्ट करता है कि वहाँ चारणमुनि उतरता है-ठहरता है। 'चेतिपाइं वदति'- में चैत्य का अर्थ मन्दिर' किया जाए तो यह अर्थ यहाँ संगत नहीं होता, क्योंकि न तो मानुषोत्तरपर्वत पर मन्दिर का वर्णन है और न ही स्वस्थान अर्थात्-जहाँ से उन्होंने उत्पात (उड़ान) किया है, वहाँ भी मन्दिर है / अतः चैत्य का अर्थ मन्दिर या मूर्ति करना संगत नहीं है, अपितु 'चिति संज्ञाने' धातु से निष्पन्न 'चैत्य' शब्द का अर्थ---विशिष्ट सम्यक्ज्ञानी है तथा 'वंदइ' का अर्थ-स्तुति करना है, अभिवादन करना है, क्योंकि 'वदि अभिवादन-स्तुत्योः' के अनुसार यहाँ प्रसंगसंगत अर्थ 'स्तुति करना है। क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत आदि पर अभिवादन करने योग्य कोई पुरुष नहीं रहता है, अतः वे उन-उन पर्वत, द्वीप एवं वनों में शीघ्रगति से पहुंचते हैं, वहाँ चैत्यवन्दन करते हैं, अर्थात्-विशिष्ट सम्यग्ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि की रचना का वर्णन जैसा उन विशिष्ट ज्ञानियों या आगमों से जाना था,' वैसा ही रचना को साक्षात् देखते हैं तब वे (चारणलब्धिधारक) उन विशिष्ट ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। गतिविषय का तात्पर्य-गतिविषय का अर्थ-तिगोचर होता है, किन्तु उसका तात्पर्य वृत्तिकार ने बताया है कि वे भले ही उन क्षेत्रों में गमन न करे, फिर भी उनका शीघ्रगति का विषयभूत क्षेत्र अमुक-अमुक है / 2 विद्याचारण : कब विराधक, कब प्राराधक ?-लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है / लब्धि का प्रयोग करने के बाद अन्तिम समय में पालोचना न की जाने पर चारित्र की आराधना नहीं होती, किन्त विराधना होती है। अर्थात् यदि लब्धि का प्रयोग बात यदि लब्धि का प्रयोग करने के बाद चारणलब्धिसम्पन्न साधक मरणकाल में उक्त प्रमादस्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण नहीं करता, तो वह चारित्र का विराधक होने से चारित्र की आराधना का फल नहीं पाता। इसके विपरीत यदि लब्धिप्रयोग करने के बाद चारणलब्धिसम्पन्न मुनि उस प्रमादस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है तो वह चारित्राराधक होता है और आराधनाफल भी पाता है। जंघाचारण का स्वरूप 6. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जंघाचारणे जंघाचारणे ? गोयमा ! तस्सणं अट्ठमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स जंघाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जा / सेतेणठेणं जाव जंघाचारणे जंघाचारणे / 1. (क) भगवती. विवेचन, भाग. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2917 (ख) वियाहपण्णत्ति-सुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 880 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 795 3. (क) वही, पत्र 795 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6, (पं. पे.), पृ. 2916 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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