________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८ [357 सूर्य किस क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है ?--सुर्य अतीत और अनागत तथा अस्पृष्ट और अनवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त नहीं करता, परन्तु वर्तमान, स्पष्ट और अवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है; अर्थात् ---इसी क्षेत्र में क्रिया करता है, अतीत, अनागत अादि में नहीं। सूर्य की ऊपर, नीचे और तिरछे प्रकाशित प्रादि करने की सीमा-सूर्य अपने विमान से सौ योजन ऊपर (ऊर्ध्व) क्षेत्र को तथा 800 योजन नीचे के समतल भूभाग से भी हजार योजन नीचे अधोलोक ग्राम तक नीचे के क्षेत्र को और सर्वोत्कृष्ट (सबसे बड़े) दिन में चक्षुःस्पर्श की अपेक्षा 472631 योजन तक तिरछे क्षेत्र को उद्योतित, प्रकाशित और तप्त करते हैं।' मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों और इन्द्रों का उपपात-विरहकाल 46. अंतो गं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-ताराख्वा ते गं भंते ! देवा कि उड्डोववन्नगा? जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा / . [46 प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप देव हैं, वे क्या ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं ? [46 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यावत् -- 'उनका उपपात-विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है'; यहाँ तक कहना चाहिए / 47. बहिया णं भंते ! माणुसुत्तरस्स० जहा-जीवाभिगमे जाव इंदवाणे णं भंते ! केवतियं कालं उववाएणं विरहिए पन्नत्ते? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // अट्टमसए : अट्ठमो उद्देसो समत्तो // [47 प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत के बाहर जो चन्द्रादि देव हैं, वे ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न [47 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत्- [प्र.] भगवन् ! इन्द्रस्थान कितने काल तक उपपात-विरहित कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः छह मास बाद दूसरा इन्द्र उस स्थान पर उत्पन्न होता है / इतने काल तक इन्द्रस्थान उपपात-विरहित होता है';-यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है. भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 393 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त), पृ. 377-378 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org