________________ 358] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों का उपपातविरहकाल प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में मानुषोत्तर-पर्वत के अन्दर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों के उपपातविरहकाल का और द्वितीयसूत्र में मानुषोत्तरपर्वत के बाहर के ज्योतिष्कदेवों एवं इन्द्रों के उपपातविरहकाल का जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण है।' / / अष्टमशतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) वियाहपष्णत्तिसुत्त', (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 378.379. (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 393-394 (ग) जीवाभिगमसूत्र, प्रतिपत्ति 3, पत्रांक 345-346 (भागमोदय. (I) (प्र.). "कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा चारटुिइया गइरइया गइसमावन्नगा ? (उ.) गोयमा ! ते णं देवा नो उड्ढोबवन्नगा, नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा, चारोववन्नगा, नो चारट्रिइया, गइरइया गइसमावन्नगा' इत्यादि / (II) (प्र.) इंदवाणे भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववाएणं?, (उ.) मोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समय उपकोसेणं छम्मास ति।' (III) .....(प्र.).."जे चन्दिम.""तेणं भंते ! कि उड्ढोववन्नगा? (उ.) गोयमा ! ते गं देवा नो उडढोबबन्नगा, नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा, नो चारोववन्नगा चारदिइया, नो गइरइया, नो गइसमावन्नगा' इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org