________________ 542] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [57 / इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने दूसरी बार भी उत्तरदिशाभिमुख सिंहासन रखवाया और क्षत्रियकुमार जमालि को श्वेत और पीत (चांदी और सोने के) कलशों से स्नान करवाया। फिर रुएँदार सुकोमल गन्धकाषायित सुगन्धियुक्त वस्त्र (तौलिये या अंगोछे) से उसके अंग (मात्र) पोंछे / उसके बाद सरस गोशीर्षचन्दन का गात्रों पर लेपन किया। तदनन्तर नाक के नि:श्वास की वायु से उड़ जाए, ऐमा बारीक, नेत्रों को पालादक (या अाकर्षक) लगने वाला, सुन्दर वर्ण और कोमल स्पर्श से युक्त, घोड़े के मुख की लार से भी अधिक कोमल, श्वेत और सोने के तारों से जड़ा हुया, महामुल्यवान् एव हंस के चिह्न से युक्त पटशाटक (रेशमी वस्त्र) पहिनाया। फिर हार (अठारह लड़ी वाला हार) एवं अर्द्ध हार (नवसरा हार) पहिनाया। जैसे राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के अलकारों का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए, यावत् विचित्र रत्नों से जटित मुकुट पहनाया। अधिक क्या कहें ! ग्रन्थिम (गथी हुई), वेष्टिम (लपेटी हुई), पूरिम-पूरी हुई-भरी हुई और संघातिम (परस्पर संघात की हुई) रूप से तैयार की हुई चारों प्रकार की मालानों से कल्पवृक्ष के समान उस जमालिकुमार को अलंकृत एवं विभूषित किया गया / विवेचन--वस्त्राभूषणों से सुसज्जित : जमालिकुमार- प्रस्तुत 57 वे सूत्र में वर्णन है-दीक्षाभिलाषी जमालिकुमार को उसके माता-पिता द्वारा स्नानादि करवा कर बहुमूल्य वस्त्रों और सोने चांदी आदि के आभूषणों से सुसज्जित किया गया / ' कठिन शब्दों का विशेषार्थ--उत्तरावक्कमणं उत्तराभिमुख-उत्तरदिशा की ओर / रयाति--रचवाया या रखवाया। सेयापीतएहि-श्वेत (चांदी) और पीत (सोने) के / पम्हलसकमालाए-रोएदार मुलायम वस्त्र (तौलिये) से / गायाइं लहेंति-शरीर पोंछा / अलिपति-लेपन किया। नासा-निस्सास-वायवोभ नासिका के श्वास से उड जाए ऐसा बारीक / चक्खहरं-नेत्रों को प्रानन्द देने वाला, आकर्षक / हयलालापेलवातिरेगं घोड़े के मह की लार से भी अधिक नरम / कणगखचितंतकम्भं—जिसके किनारों पर सोने के तार जड़े हुए थे / पिणद्धति - धारण कराया / रयणसंकडुक्कडं---रत्नों से जटित / पूरिम-पिरोई हुई। संघातिम ---परस्पर जोड़े हुए। मल्लेणं = माला से / 58. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासि-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अपेगखंभसयसनिविट्ठ लीलद्वियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवण्णओ जाव मणिरयणघंटियाजालपरिखित्तं पुरिससहस्तवाहणीयं सीयं उवद्ववेह, उवद्ववेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। 1. वियाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, पृ. 467 2. भगवती भा. 4 (पं. घेवरचन्द), पृ. 1740 3. राजप्रश्नीय में वणित विमानवर्णन यह है.---"ईहामिय-उसम-तुरग-नर-मगर-वालग-विहग-किनार-हरु-सरम चमर-कुजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्त,"""खंभुग्गरवाइरवेइयापरिगताभिरामं .."विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्त पिव,""अच्चीसहस्समालिणीयं, 'रूवगसहस्सकलियं, भिसमाणं "भिभिसमाणं, चक्थुलोयणलेसं, "सुहफास सस्सिरीयरूवं घंटावलिचलियमहरमणहरस्सर, सुहं कंस दरिसणिज्नं निउगोवियमिसिमिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित...." -रायप्पसेणइज्जसुत्त (गुर्जर.) पृ. 155. के. 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org