________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [541 56] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने शुक्लवर्ण के या हंस-चिह्न वाले वस्त्र की चादर (शाटक) में उन अग्रकेशों को ग्रहण किया / फिर उन्हें सुगन्धित गन्धोदक से धोया, फिर प्रधान एवं श्रेष्ठ गन्ध (इत्र) एवं माला द्वारा उनका अचंन किया और शुद्ध वस्त्र में उन्हे बांध कर रत्नकरण्डक (रत्नों के पिटारे) में रखा / इसके बाद जमालिकुमार की माता हार, जलधारा, सिन्दुवार के पुष्पों एवं टूटी हुई मोतियों की माला के समान पुत्र के दुःसह (असह्य) वियोग के कारण आंसू बहानी हुई इस प्रकार कहने लगी...."ये (जमालि कुमार के अग्रकेश) हमारे लिए बहुत-सी तिथियों, पर्वो, उत्सवों और नागपूजादिरूप यज्ञों तथा (इन्द्र-) महोत्सवा दिरूप क्षणों में क्षत्रियकुमार जमालि के अन्तिम दर्शनरूप होंगे".-ऐसा विचार कर उन्हें अपने तकिये के नीचे रख दिया। विवेचन-माता ने जमालिकुमार के अनकेश सुरक्षित रखे-प्रस्तुत सूत्र में जमालिकुमार के उन अग्रकेशों को अचित करके रत्नपिटक में सुरक्षित रखने का वर्णन है। साथ ही यह बताया गया है कि उन्हें सुरक्षित रखने का कारण माता की ममता है कि भविष्य में जमालि के ये केश ही उसके दर्शन या स्मृति के प्रतीक होंगे।' कठिन शब्दों का भावार्थ-पडिच्छइ-ग्रहण किये। हंसलक्खणणं पडसाइएणं-हंस के समान श्वेत अथवा हंसचिह्न वाले पट-गाटक-वस्त्र की चादर अथवा पल्ले में / पक्खिवति-रखे। अम्गेहि-प्रधान (अग्र)। वरेहि- श्रेष्ठ / सिदवार सिन्दवार (निर्गुण्डी) के सफेद फूल / छिन्नमुत्तावलिप्यगासाई-टूटी हुई मुक्तावली (मोतियों की माला) के समान / तिहीसु- तिथियों-मदनत्रयोदशी आदि तिथियों में, पव्वणीसु--कार्तिक पूणिमा अादि पों में / उस्सवेसु--प्रियजनों के संगमादि समारोहों में। जग्णेसु.--नागपूजा आदि यज्ञों में / छणेसु---इन्द्रमहोत्सवादिरूप क्षणोंअवसरों पर। अपच्छिमे दरिसणे अन्तिम दर्शन / प्रोसीसगमूले तकिये के नीचे / ठवेति-रख देती है। 57. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा-पियरो दुच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयाति, दुच्चं पि उत्तरावक्कमणं सोहासणं रयावित्ता जमालि खत्तियकुमारं सेयापीतहिं कलसेहिं पहाणेति, से० 23 पम्हसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाइं लहेति, सुरभीए गंधकासाइए गायाई लहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिपति, गायाई अलिपित्ता नासानिस्सासवायबोझ चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं यलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियंतकम्मं महरिहं हंसलक्षणं पडसाडगं परिहिति, परिहित्ता हारं पिणद्धति, 2 अद्धहारं पिणद्धति, अ० पिणद्धित्ता एवं जहा सूरिया. भस्स अलंकारो तहेब जाव चित्तं रयणसंकडुक्कडं मउड़ पिणद्धति, कि बहुणा? गंथिम-बेढिम-पूरिमसंघातिमेणं चउब्विहणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेंति / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 467 2. [क] भगवती. अ. वत्ति, पत्र 477 (ख) भगवती भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 1337 3. पूरा पाठ-'सेयापीतएहि कलसेहि हाणेत्ता।" 4. राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के अलंकार का वर्णन--"एगावलि पिणद्धति, एवं मुक्तावलि कणगालि रयणावलि अगयाइं केऊराई कउगाई तुडियाई कडिसुत्तयं दसमुद्दयार्णतय बच्छसुत्त मुरवि कंठमुरवि पालवं कुडलाई चूडामणि / " -भगवती. अ. व. 477, पत्र; रायप्पसेणइज्ज (गुर्जर.) पृ. 251-252 कण्डिका 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org