________________ 690] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' यों कह कर माकन्दिकपुत्र यावत् विचरण करते हैं। विवेचन प्राहार रूप से गृहीत पुद्गलों के ग्रहण और त्याग एवं उन पुद्गलों को धारणशक्ति का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों में इन दो तथ्यों का निरूपण किया गया है। आहार रूप में गृहीत पुद्गलों का कितना भाग ग्राह्य और त्याज्य होता है ?-आहार रूप में गहीत पुदगलों का असंख्यातवा सार भाग ग्रहण किया जाता है और अनन्तवाँ भाग म त्याग दिया जाता है। निर्जरा पुद्गलों का सामर्थ्य-निर्जरा किये हुए पुद्गल अनाधारण रूप होते हैं, अर्थात् वे किसी भी वस्तु को धारण करने में समर्थ नहीं होते।' कठिन शब्दार्थ--सेयकालंसि-भविष्यकाल में अर्थात--ग्रहण करने के अनन्तर काल में / निज्जरेंति-निर्जरण करते हैं---मूत्रादिवत् त्याग करते हैं / चक्किया— शक्य / आसइत्तए-बैठने में / तुट्टित्तए—करवट बदलने या सोने में / // अठारहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 743 2. (क) वही, पत्र 743 / (ख) भगवती सूत्र भा. 6, (विवेचन-पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2690 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org