________________ 368] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र स्वाभाविकवृष्टि और देवकृतवृष्टि का सहेतुक निरूपण 7. अस्थि णं भंते ! पज्जन्ने कालवासी वुट्टिकायं पकरेति ? हंता, अस्थि / [7 प्र.] भगवन् ! कालवर्षी (काल-समय पर बरसने वाला) मेघ (पर्जन्य) वृष्टिकाय (जलसमूह) बरसाता है ? [7 उ. हाँ, गौतम ! वह बरसाता है / 8. जाहे णं भंते / सक्के देविदे देवराया वुट्टिकायं काउकामे भवति से कह मियाणि पकरेति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविदे देवराया अभंतरपरिसाए देवे सद्दावेति, तए णं ते अभंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसाए देवे सद्दावेति, तए गं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसाए देवे सदाति, तए णं ते वाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सद्दावेति, तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा प्राभियोगिए देवे सद्दार्वेति, तए गं ते जाव सद्दाविया समाणा वुट्टिकाइए देवे सद्दावेंति, तए णं ते वुद्धिकाइया देवा सद्दाविया समाणा वुट्टिकायं पकरेंति / एवं खलु गोयमा ! सक्के देविदे देवराया बुट्टिकायं पकरेति / [8 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करने की इच्छा करता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? उ.] गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करना चाहता है, तब (अपनी) याभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है / बुलाए हुए वे आभ्यन्तर परिषद् के देव मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं / तत्पश्चात् बुलाये हुए वे मध्यम परिषद् के देव, बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं, नव बुलाये हुए वे बाह्य-परिषद् के देव बाह्य-बाह्य (बाहर-बाहर- वाह्य परिषद् से बाहर) के देवों को बुलाते हैं। फिर वे बाह्य-बाह्य देव प्राभियोगिक देवों को बुलाते हैं। इसके पश्चात् बुलाये हुए वे आभियोगिक देव वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं और तब वे बुलाये हुए वृष्टिकायिक देव वृष्टि करते हैं / इस प्रकार हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करता है / 9. अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा वुट्टिकायं पकरेंति ? हंता, अस्थि / [6 प्र.) भगवन् ! क्या असुर कुमार देव भी वृष्टि करते हैं ? [6 उ.] हाँ, गौतम ! (वे भी वृष्टि) करते हैं। 10. किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा वुद्धिकायं पकरेंति ? गोयमा ! जे इमे प्ररहंता भगवंतो एएसि णं जम्मणमहिमासु वा, निक्खमणमहिमासु वा, नाणुप्पायमहिमासु वा परिनिवाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा वुट्टिकार्य पकरेंति। [10 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव किस प्रयोजन से वृष्टि करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org