________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 2] [10 उ.] गौतम ! जो ये अरिहन्त भगवान होते हैं, उनके जन्म-महोत्सबों पर, निष्क्रमणमहोत्सवों पर, ज्ञान (केवलज्ञान) की उत्पत्ति के महोत्सवों पर, परिनिर्वाण-महोत्सवों पर, हे गौतम ! इन अवसरों पर असुरकुमार देव वृष्टि करते हैं। 11. एवं नागकुमारा वि / [11] इसी प्रकार नागकुमार देव भी वृष्टि करते हैं / 12. एवं जाव थणियकुमारा। [12] यावत् स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। 13. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव / [13] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन-निष्कर्ष प्रस्तुत सात सूत्रों में मेघ द्वारा स्वाभाविक और भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों द्वारा बिना मौसम के तीर्थकर भगवन्तों के पंचकल्याणक महोत्सवों के निमित्त से स्वैच्छिक वष्टि करने का वर्णन किया है। शकेन्द्र द्वारा वृष्टि करने की प्रक्रिया का भी वर्णन किया गया है। इस वर्णन पर से 'ईश्वर की इच्छा होती है, तब वह वर्षा बरसाता है, इस मान्यता का निराकरण हो जाता है। तथ्य यह है कि वृष्टि या तो मेघ द्वारा मौसम पर स्वाभाविक होती है अथवा देवेच्छाकृत होती है / अथवा पर्जन्य इन्द्र को भी कहते हैं।' ___ कठिनशब्दार्थ --पज्जण्णे—पर्जन्य—मेघ / बुद्धिकायं-वृष्टि काय -जलवृष्टिसमूह / काउकामे-करने का इच्छुक / कहमियाणि-किस प्रकार से / किपत्तियं-किस निमित्त (प्रयोजन) से, किस लिए / णाणुप्पायमहियासु-केवलज्ञान की उत्पत्ति-महोत्सवों पर / कालवासी-काल-समय पर (प्रावृट्-वर्षा ऋतु में) बरसने वाला / पर्जन्य का अर्थ इन्द्र करने पर वह भी तीर्थकरजन्म-महोत्सव आदि पर बरसाता है। ईशानदेवेन्द्रादि चतुर्विधदेवकृत तमस्काय का सहेतुक निरूपण 14. जाहे णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया तमुकायं कातुकामे भवति से कहामियाणि पकरेति? गोयमा ! ताहे चेव गं ईसाणे देविदे देवराया अभितरपरिसाए देवे सदावेति, तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सहाविया समाणा एवं जहेब सक्कस्स जाव तए णं ते आभियोगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुकाइए देवे सद्दार्वेति, तए णं ते तमुकाइया देवा सद्दाविया समाणा तमुकायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा! ईसाणे देविदे देवराया तमुकायं पकरेति / -- - -- -- 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635-636 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2292 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org