________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 2] मोहनीयजन्य-उन्माद : स्वरूप और प्रकार--मोहनीयकर्म के उदय से आत्मा का पारमाथिक (वास्तविक सत्-असत् का) विवेक नष्ट हो जाना, मोहनीय-उन्माद कहलाता है। इसके दो भेद हैं--- मिथ्यात्वमोहनीय-उन्माद और चारित्रमोहनीय-उन्माद / मिथ्यात्वमोहनीय-उन्माद के प्रभाव से जीव अतत्त्व को तत्त्व और तत्त्व को अतत्त्व मानता है। चारित्रमोहनीय के उदय से जोव विषयादि के स्वरूप को जानता हुना भी अज्ञानी के समान उसमें प्रवृत्ति करता है। अथवा चारित्रमोहनीय की वेद नामक प्रकृति के उदय से जीव हिताहित का भान भूल कर स्त्री आदि में प्रासक्त हो जाता है, मोह के नशे में पागल बन जाता है / वेदोदय काम-ज्वर से उन्मत्त जीव की दस दशाएँ इस प्रकार हैं चिंतेइ 1 टुमिच्छइ 2 दीहं नीससइ 3 तह जरे 4 दाहे 5 / भत्तभरोमग 6, मुच्छा 7 उन्माय 8 न याणई 9 मरणं 10 / / 1 / / अर्थात्-तीन वेदोदय (काम) से उन्मत्त हुआ जीव (1) सर्व प्रथम विषयों, कामभोगों या स्त्रियों आदि का चिन्तन करता है, (2) फिर उन्हें देखने के लिए लालायित होता है, (3) न प्राप्त होने पर दीर्घ निःश्वास डालता है, (4) काम-ज्वर उत्पन्न हो जाता है, (5) दाहग्रस्त के समान पीडित हो जाता है, (6) खाने-पीने में अरुचि हो जाती है, (7) कभी-कभी मूच्छी (बेहोशी) आ जाती है, (8) उन्मत्त होकर बड़बड़ाने लगता है, (9) काम के आवेश में उसका विवेकज्ञान लुप्त हो जाता है और अन्त में (10) कभी कभी मोहावेशवश मृत्यु भी हो जाती है।' दोनों उन्मादों में सुखवेद्य-सुखमोच्य कौन ? –मोहजन्य उन्माद की अपेक्षा यक्षाविष्ट उन्माद का सुखपूर्वक वेदन और विमोचन हो जाता है। जबकि मोहजन्य उन्माद दुःखपूर्वक वेद्य एवं मोच्य है। उसकी अपेक्षा दुःखपूर्वक वेदन एवं विमोचन इसलिए होता है कि मोहनीय कर्म अनन्त संसारपरिभ्रमण एवं परिवद्धि का कारण है। संसार-परिभ्रमण रूप दु:ख का वेदन कराना मोहनीय का स्वभाव है / यक्षावेश-उन्माद का सुखपूर्वक वेदन इसलिए होता है कि वह अधिक से अधिक एकभवाश्रयी होता है, जबकि मोहनीयजन्य उन्माद कई भवों तक चलता है / इसलिए उसका छुड़ाना सरल नहीं है / वह बड़ी कठिनाई से छुड़ाया जा सकता है / विद्या, मंत्र, तंत्र इष्ट देव या अन्य देवों द्वारा भी उसका छुड़ाया जाना अशक्य-सा है / यक्षावेश सुखविमोचनतर है। क्योंकि यक्षाविष्ट पुरुष को खोड़ा--बेड़ी आदि बन्धन में डाल देने पर वह वश में हो जाता है; जबकि मिथ्यात्वमोहनीयजन्य उन्माद इस तरीके से कदापि मिटता नहीं / कहा भी है सर्वज्ञ-मन्त्रवाद्यपि, यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः / मिथ्या-मोहोन्मादः, स केन किल कथ्यतां तुल्यः ? // ___ सर्वज्ञ या मंत्रवादी महापुरुष भी मोहनीयजन्य उन्माद का निराकरण करने में (मिथ्यात्वरूपी मोहोन्माद को दूर करने) में समर्थ नहीं है। इसलिए बताइए कि मिथ्यात्व मोहनीयजन्य उन्माद की किसके साथ तुलना की जा सकती है ! इसलिए दोनों उन्मादों में से यक्षावेश रूप उन्माद का सुखपूर्वक वेदन-विमोचन हो सकता है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635 2. (क) भगवती. हिन्दीविवेचन भा. 5, पृ. 2290-91 (ख) भगवती. अ. वु., पत्र 635 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org