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________________ 366] चौदहवां शतक : उद्देशक 2] कर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्य उन्माद को प्राप्त होता है। इस कारण, हे गौतम ! दो प्रकार का उन्माद कहा गया है, यावत् मोहनीयकर्मोदय से होने वाला उन्माद / 3. असुरकुमाराणं भंते ! कतिविधे उम्मादे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्माए पन्नत्ते / एवं जहेव नेरइयाणं, नवरं-देवे वा से महिड्डियतराए असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पविखवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा, मोहणिज्जस्स वा० / सेसं तं चेव / से तेणढणं जाव उदएणं / 13 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों में कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ? 13 उ.] गौतम ! नैरयिकों के समान उनमें भी दो प्रकार का उन्माद कहा गया है। विशेषता (अन्तर) यह है कि उनकी अपेक्षा महद्धिक देव, उन असुरकुमारों पर प्रशभ पुदगलों का प्रक्षेप करता है और वह उन अशुभ पूदगलों के प्रक्षेप से यक्षावेशरूप उन्माद को प्राप्त हो जाता है तथा मोहनीयकर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्य उन्माद को प्राप्त होता है। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / 4. एवं जाव थपियकुमाराणं / [4] इसी प्रकार यावत् स्तन्तिकुमारों (तक के उन्माद के विषय में समझना चाहिए / ) 5. पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साणं, एतेसि जहा नेरइयाणं / [5] पृथ्वीकायिकों से लेकर यावत् मनुष्यों तक नैरयिकों के समान कहना चाहिए। 6. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं / [6] वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्कदेव और वैमानिकदेवों (के उन्माद) के विषय में भी असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन-उन्माद : प्रकार और कारण--प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1-7 तक) में उन्माद के दो प्रकार (यक्षावेश जन्म और मोहनीयजन्य) बता कर, नरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में इन दोनों प्रकार के उन्मादों का अस्तित्व बताया है। यक्षावेशरूप उन्माद के कारण में थोड़ाथोड़ा / वह यह है कि चार प्रकार के देवों को छोड कर नयिकों, पृथ्वीकायादि तिर्यञ्चों और मनुष्यों पर कोई देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, तब बे यक्षावेश-उन्मादग्रस्त होते हैं, जबकि चारों प्रकार के देवों पर कोई उनसे भी महद्धिक देव अशुभ पुद्गल-प्रक्षेप करता है तो वे यक्षावेशरूप उन्माद से ग्रस्त होते हैं।' उन्माद का स्वरूप-उन्मत्तता को उन्माद कहते हैं, अर्थात् जिससे स्पष्ट या शुद्ध चेतना (विवेकज्ञान) लुप्त हो जाए, उसे उन्माद कहते हैं / यक्षावेश-उन्माद का लक्षण--शरीर में भूत, पिशाच, यक्ष प्रादि देवविशेष के प्रवेश करने से जो उन्माद है, वह यक्षावेश-उन्माद है / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृष्ठ 661-662 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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