________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [ 395 [119 उ.] गौतम ! प्रायुष्यकर्म के देशबन्धक जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे प्रबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। विवेचन–कार्मणशरोर-प्रयोगबन्ध का भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दष्टियों से निरूपणप्रस्तुत 23 सूत्रों (सू. 67 से 116 तक) में कार्मणशरीर के ज्ञानावरणीयादि आठ भेदों को लेकर उस-उस कर्म के भेद की अपेक्षा प्रयोगबन्ध की पूर्ववत् विचारणा की गई है। कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध : स्वरूप, भेद-प्रभेदादि एवं कारण---आठ प्रकार के कर्मों के पिण्ड को कार्मणशरीर कहते हैं / ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध आदि पाठों के वे ही कारण बताए हैं जो उन-उन कर्मों के कारण हैं / जैसे-ज्ञानावरणीय के 6 कारण हैं, वे ही ज्ञानावरणीय कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध के हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। ___ ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण इन दोनों कर्मों के कारण समान हैं, सिर्फ ज्ञान और दर्शन शब्द का अन्तर है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय बताए गए हैं, उनमें ज्ञानप्रत्यनोकता, दर्शनप्रत्यनीकता आदि का ज्ञान और ज्ञानीपुरुष, तथा दर्शन और दर्शनीपुरुष की प्रत्यनीकता आदि अर्थ समझना चाहिए। ज्ञानावरणीयादि अष्ट-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं-देशबन्ध के ही तैजसशरीरप्रयोगबन्ध की तरह अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित ये दो भेद हैं। इन दोनों का अन्तर नहीं है / पायुकर्म के देशबन्धक-आयुष्यकर्म के देशबन्धक सबसे थोड़े हैं और अबन्धक उनसे संख्यातगुण हैं; क्योंकि प्रायुष्यबन्ध का समय बहुत ही थोड़ा है, और अबन्ध का समय उससे बहुत अधिक है। यह सूत्र अनन्तकायिक जीवों की अपेक्षा से है। वहाँ अनन्तकायिक जीव संख्यातजीवित ही है / उनमें आयुष्य के अबन्धक देशबन्धकों से संख्यातगुण ही होते हैं / यद्यपि सिद्धजीव, जो आयुष्य के प्रबन्धक हैं, उन्हें भी इसमें सम्मिलित कर लिया जाए तो भी वे देशवन्धकों से संख्यातगुण ही होते हैं, क्योंकि सिद्ध आदि अवन्धक अनन्त जीव भी अनन्तकायिक आयुष्यबन्धक जीबों के अनन्तवें भाग ही होते हैं। जीव जिस समय प्रायुष्यकर्म के बन्धक होते हैं, उस समय उन्हें सर्वबन्धक इसलिए नहीं कहा गया है कि जिस प्रकार औदारिकशरीर को बांधते समय जीव प्रथम समय में शरीरयोग्य सब पुद्गलों को एक साथ खींचता है, उस प्रकार अविद्यमान समग्र अायु प्रकृति को नहीं बांधता, इसलिए पायुकर्म का सर्वबन्ध नहीं होता।' कठिन शब्दों की व्याख्या-जाणनिह्रवणयाए=ज्ञान की-श्रुत की या श्रुतगुरुषों की निह्नवता (अपलाप) से / पाणंतराएण =ज्ञान-श्रुत में अन्तराय-शास्त्र-ज्ञान के ग्रहण करने आदि में विघ्न डालना / नाणपत्रोसेणं-ज्ञान-श्रुतादि या ज्ञानवानों के प्रति प्रद्वेष-अप्रीति से / नाणऽच्चासायणाएज्ञान या ज्ञानियों की अत्यन्त पाशातना हीलना से | नाणविसंवायणाजोगेणं = विसंवादन का अर्थ है-अतिशय ज्ञानियों द्वारा और रूप में प्रतिपादित तथ्य को अन्यथा कहना या विपरीत प्ररूपणा करना / ज्ञान या ज्ञानियों के प्रतिपादित तथ्यों में दोषदर्शन रूप अन्यथा व्यापार / तद्रूप योग-ज्ञानविसंवादन योग से / दसणपडिणीययाए - दर्शन चक्षुर्दर्शनादि की प्रत्यनीकता से / तिव्वदंसण१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 411-412 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org