SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2725
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पढमो उद्देसओ : 'जीवादि-बंध' __ प्रथम उद्देशक : जीवादि के बन्धसम्बन्धी प्रथम स्थान : जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपरण 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं बयासी-- [3] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा--- 4. जीवे णं भंते ! पावं कम्मं कि बंधी, बंधति, बंधिस्सति; बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; बंधी, न बंधति, बंधिस्सति; बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति ? गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; अत्यंगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सइ प्रत्यंगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति / [4 प्र.] भगवन् ! (1) क्या जीव ने (भूतकाल में) पापकर्म बांधा था, (वर्तमान में) बांधता है और (भविष्य में) बांधेगा? (2) (अथवा क्या जीव ने पापकर्म) बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा ? (3) (या जीव ने पापकर्म) बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा? (4) अथवा बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा ? [4 उ.] गौतम ! (1) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा / (2) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है, किन्तु मागे नहीं बांधेगा। (3) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है, किन्तु पागे बांधेगा / (4) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है आगे भी नहीं बांधेगा। विवेचन-जीव के पापकर्मबन्धसम्बन्धी चतुर्भगी-(१) इन चार भंगों में से प्रथम भंग'पापकर्म बांधा था, बांधता है, बांधेगा', -अभव्य जीव की अपेक्षा से है। (2) 'बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा' यह द्वित्तीय भंग क्षपक-अवस्था को प्राप्त होने वाले भव्य जीव की अपेक्षा से है। (3) 'बांधा था, नहीं बांधता है, किन्तु आगे बांधेगा'; यह तृतीय भंग जिस जीव ने मोहनीय कर्म का उपशम किया है, उस भव्य जीव की अपेक्षा से है और (4) 'बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा; यह चतुर्थ भंग क्षीण-मोहनीय जीव की अपेक्षा से है। शंका-समाधान-कोई यह शंका करे कि जिस प्रकार 'बांधा था' के चार भंग बनते हैं, उसी प्रकार 'नहीं बांधा था' के भी चार भंग क्यों नहीं बन सकते ? इसका समाधान यह है कि कोई भी जीव ऐसा नहीं है जिसने भूतकाल में पापकर्म नहीं बांधा था। इसलिए नहीं बांधा था' ऐसा मूल भंग ही नहीं बनता तो फिर चार भंग बनने का तो प्रश्न ही नहीं है / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 929 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3549 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy