________________ 180 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (अन्तरहित) है। इस प्रकारद्रव्यजीव और क्षेत्रजीव अन्तसहित है, तथा काल-जीव और भावजीव अन्तरहित है / अतः हे स्कन्दक ! जीव अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है / [24-3] हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यावत् जो यह विकल्प उठा था कि सिद्धि (सिद्धशिला) सान्त है या अन्तरहित है ? उसका भी यह अर्थ (समाधान) है-हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार की सिद्धि बताई है / वह इस प्रकार है--द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, कालसिद्धि और भावसिद्धि / १-द्रव्य से सिद्धि एक है, अत: अन्तसहित है। २-क्षेत्र से सिद्धि 45 लाख योजन की लम्बीचौड़ी है, तथा एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ विशेषाधिक (झाझेरी) है, अतः अन्त सहित है / ३-काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें सिद्धि नहीं थी, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें सिद्धि नहीं है तथा ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें सिद्धि नहीं रहेगी। अत: वह नित्य है, अन्तरहित है। ४-भाव से सिद्धि-जैसे भाव लोक के सम्बन्ध में कहा था, उसी प्रकार है। (अर्थात वह अनन्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुरुलघ-अगुरुलघ-पर्यायरूप है तथा अन्तरहित है। इस प्रकार द्रव्यसिद्धि और क्षेत्रसिद्धि अन्तसहित है तथा कालसिद्धि और भावसिद्धि अन्तरहित है। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्धि अन्त-सहित भी है और अन्तरहित भी है। [24-4] हे स्कन्दक ! फिर तुम्हें यह संकल्प-विकल्प उत्पन्न हुअा था कि सिद्ध अन्तसहित हैं या अन्तरहित हैं ? उसका अर्थ (सामाधान) भी इस प्रकार है-(यहाँ सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए) यावत्-द्रव्य से एक सिद्ध अन्तसहित है / क्षेत्र से सिद्ध असंख्यप्रदेश वाले तथा असंख्य आकाश-प्रदेशों का अवगाहन किये हुए हैं, अत: अन्तसहित हैं / काल से—(कोई भी एक) सिद्ध प्रादिसहित और अन्तरहित है। भाव से—सिद्ध अनन्तज्ञानपर्यायरूप हैं, अनन्तदर्शनपर्यायरूप हैं, यावत्अनन्त-अगूरुलघपर्यायरूप हैं तथा अन्तरहित हैं। अर्थात-द्रव्य से और क्षेत्र से सिद्ध अन्तसहित हैं तथा काल से और भाव से सिद्ध अन्तरहित हैं। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्ध अन्तसहित भी हैं और अन्तरहित भी हैं। 25. जे विय ते खंदया! इमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए जाव समुप्पज्जित्था केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे ववृति वा हायति वा ? तस्स वि य णं अयम?-एवं खलु खंदया! मए दुविहे मरणे पणत्ते, तं जहा-बालमरणे य पंडियमरणे य। 25] और हे स्कन्दक ! तुम्हें जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, यावत्---संकल्प उत्पन्न हुया था कि कौन-से मरण से मरते हुए जीव का संसार बढ़ता है और कौन-से मरण से मरते हुए जीव का संसार घटता है ? उसका भी अर्थ (समाधान) यह है-हे स्कन्दक ! मैंने दो प्रकार के मरण बतलाए हैं। वे इस प्रकार हैं-बालमरण और पण्डितमरण / 26. से कि तंबालमरणे? बालमरणे दुवालसविहे प०, तं जहा-वलयमरणे 1 वसट्टमरणे 2 अंतोसल्लमरणे 3 तम्भवमरणे 4 गिरिपडणे 5 तरुपडणे 6 जलप्पवेसे 7 जलणष्पवेसे 8 विसमक्खणे | सत्थोवाडणे 10 वेहाणसे 11 गद्धप? 12 / इच्छेते णं खंदया! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जोवे अणंतेहि नेरइयभवग्गहणेहि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org