________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१ ] [ 179 पुण से अंते / कालो णं जीवे न कयावि न मासि जाब निच्चे, नत्थि पुणाइ से अंते। भावनो णं जोवे अणंता णाणपज्जवा प्रणेता सणपज्जवा प्रणेता चरित्तपज्जवा अणंता गरुयलहुयपज्जवा प्रशंसा अगस्यलहुयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते / से तं दवप्रो जोवे सअंते, खेतम्रो जोवे सते, कालो जावे प्रणते, भावनो जीवे प्रणेते। [3] जे वि य ते खंदया ! पुच्छा। दश्वनो णं एगा सिद्धो सअंता; खेतप्रोणं सिद्धी सं जोयणसयसहस्साई प्रायाम-विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालोसं च जोयणसयसहस्साई तोसं च जोयणसहस्साई दोन्नि य प्रउणापन्ने जोधणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं 10, प्रत्यि पुण से अंते; कालओ गं सिद्धी न कयावि न प्रासि०; भावप्रो य जहा लोयस तहा माणियन्वा / तत्थ दव्वनो सिद्धी सअंता, खेत्तप्रो सिद्धी सांता, कालप्रो सिद्धी प्रणता, मावनो सिद्धी प्रणंता / [4] जे विय ते खंदया ! जाव कि प्रणते सिद्ध ? तं चेव जाव दव्यश्रो णं एगे सिद्ध सते; खेत्तनो णं सिद्ध प्रसंखेज्जपएसिए प्रसंखेज्जपदेसोगाढे, अस्थि पुण से अंते; कालो णं सिद्ध सादोए अपज्जवसिए, नस्थि पुण से अंते; भावमो सिद्ध प्रणंता गाणपज्जवा, प्रणंता सणपज्जवा जाव अणंता अगस्यलहुयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते / से तं दम्वनो सिद्ध सते, खेत्तयो सिद्ध सते, कालो सिद्ध अणंते, भावो सिद्ध प्रणंते / 24-1] (भगवान् ने फरमाया-) हे स्कन्दक! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प, समुत्पन्न हुआ था कि 'लोक सान्त है, या अनन्त ?' उस का यह अर्थ (उत्तर) है-हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार का लोक बतलाया है, वह इस प्रकार हैद्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक / उन चारों में से द्रव्य से लोक एक है, और अन्त वाला है, क्षेत्र से लोक असंख्य कोड़ाकोडी योजन तक लम्बा-चौड़ा है असंख्य कोडाकोड़ो योजन को परिधि वाला है, तथा वह अन्तसहित है। काल से ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें लोक नहीं था, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसम लोक नहीं है, ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें लोक न होगा। लोक सदा था, सदा है, और सदा रहेगा / लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। उसका अन्त नहीं है / भाव से लोक अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, रसपर्यायरूप और स्पर्श-पर्यायरूप है / इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप एवं अनन्त अगुरुलघपर्यायरूप है। उसका अन्त नहीं है। इस प्रकार हे स्कन्दक! द्रव्य-लोक क्षेत्र-लोक अन्तसहित है, काल-लोक अन्तरहित है और भावलोक भी अन्तरहित है। अतएव लोक अन्तसहित भो है और अन्तरहित भी है। [24-2] और हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यह विकल्प उठा था, कि यावत्-'जीव सान्त है या अन्तरहित है ?' उसका भी अर्थ (स्पष्टोकरण) इस प्रकार है-'यावत् द्रव्य से एक जीव अन्तसहित है। क्षेत्र से जीव असंख्य प्रदेश वाला है और असंख्य प्रदेशों का अवगाहन किये हुए है, अतः वह अन्तसहित है / काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें जीव न था, यावत्-जीव नित्य है, अन्तरहित है। भाव से-जीव अनन्त-ज्ञानपर्याय रूप है, अनन्तदर्शनपर्यायरूप है, अनन्तचारित्रपर्यायरूप है, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप है, अनन्त-अगुरुलघुपर्यायरूप है और उसका अन्त नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org