________________ 178 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणप्पयाहिणं करेइ जाव पज्जुवासइ / [22] अतः व्यावत्तभोजी श्रमण भगवान् महावीर के उदार यावत् शोभा से अतीव शोभायमान शरीर को देखकर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को अत्यन्त हर्ष हमा, सन्तोष हा, एवं उसका चित्त आनन्दित हा / वह प्रानन्दित, मन में प्रीतियुक्त परम सौमनस्यप्राप्त तथा हर्ष से प्रफुल्ल हृदय होता हुआ जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके निकट आया / निकट आकर श्रमण भगवान् महावीर की दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगा। 23. 'खंदया !' ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चाय० एवं क्यासी–से नणं तुम खंदया ! सावस्थीए नयरीए पिंगलएणं णियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए 'मागहा ! कि सते लोए अणते लोए ?' एवं तं चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वभागए। से नूणं खंदया! अयम8 सम?। हंता, अस्थि / (23] तत्पश्चात् 'स्कन्दक !' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिवाजक से इस प्रकार कहा-हे स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्गन्थ ने तुमसे इस प्रकार प्राक्षेपपूर्वक पूछा था कि-मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ! प्रादि / (उसने पांच प्रश्न पूछे थे, तुम उनका उत्तर नहीं दे सके, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जान लेना) यावत्--उसके प्रश्नों से व्याकुल होकर तुम मेरे पास (उन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए) शीघ्र पाए हो। हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है / / (स्कन्दक ने कहा-) 'हाँ, भगवन् ! यह बात सत्य है।' 24. [1] जे विय ते खंदया ! अयमेयारवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था-कि सते लोए, अणते लोए ? तस्स वि य णं अयम?–एवं खलु मए खंदया ! चरविहे लोए पण्णते, तं जहा-दब्धप्रो खेत्तनो कालो भावनो। दम्वनो णं एगे लोए सअंते / खेत्तओ णं लोए प्रसंज्जालो जोयणकोडाकोडीमो प्रायाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जानो जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं 50, अत्यि पुण से अंते / कालो गं लोए ण कयावि न प्रासी न कयावि न भवति न कयाविन भविस्सति, भुवि च भवति य भविस्सह य, धुवे णियए सासते अक्खए अब्बए प्रबटिए णिच्चे, जस्थि पुण से अंते। भावो लोए प्रणता वण्णपज्जवा गंध० रस० फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अर्णता गरुयलहुयषज्नवा, अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते / से तं खंदगा! दवो लोए सोते, खेत्तनो लोए सते, कालतो लोए अणते, मावो लोए अर्णते / 2 वि य ते खंदया ! जान सते जीवे, अणते जीवे ? तस्स वि य णं अयम एवं खलु जाव दवनोगं एगे जीवे सांते / खेत्तो गं जीवे असंखेज्जपएसिए असंखेज्जपनेसोगाढे, अस्थि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org