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________________ बोसवां शतक : उद्देशक 6] 13. एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयाण य कप्पाणं अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए। [13] इसी प्रकार सहनार और अानत-प्राणत कल्प के बीच में मरणसमुद्धात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। 14. एवं प्राणय-पाणयाणं श्रारणऽच्चुयाण य कप्पाणं अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए / [14] इसी प्रकार आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्प के बीच में मरणसमुद्घात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। 15. एवं आरणऽच्चुताणं गेवेज्जविमाणाण य अंतरा० जाव अहेसत्तमाए / [15] इसी प्रकार आरण-अच्युत और ग्रे वेयक विमानों के अन्तराल में, मरणसमुद्धात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक / 16. एवं गेवेज्जविमाणाण अनुत्तर विमाणाण य अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए / [16] इसी प्रकार अवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों के अन्तराल में (मरणसमुद्घातपूर्वक) पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक / 17. एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसि दबभाराए य अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयब्वो। [17] इसी प्रकार अनुत्तरविमानों और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी के अन्तराल में (मरणसमुद्घात. पूर्वक) पुन: यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। विवेचन-प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 6 से 17 तक) में पहले से विपरीत निरूपण है। अर्थात पहले के आलापकों में सात नरकपृथ्वियों में से दो-दो के मध्य में मरणसमुद्घात का निरूपण था, इन आलापकों में सौधर्मदेवलोक से ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी तक में से चार, तीन या अधिक देवलोकों के बीच में मरणसमुद्धात करने का वर्णन है। वहाँ सौधर्म से लेकर ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक विशेषण तथा यहाँ उसके स्थान पर रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक का विशेषण है। पृथ्वीकायिकविषयक सूत्रों के अतिदेश-पूर्वक अकायिकविषयक पूर्व-पश्चात् आहारउत्पाद-निरूपण 18. श्राउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समो० 2 जे भविए सोहम्मे कप्पे पाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए ? सेसं जहा पुढ विकाइयस्स जाव से तेणढेणं० / 618 प्र.] भगवन् ! जो अकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में प्रकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे पाहार करता है या पहले पाहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? [19 उ.] गौतम ! (अप्कायिक नाम के सिवाय) शेष समग्न (समाधान) पृथ्वीकायिक (इसी उद्देश्य के सू. 1) के समान जानना चहिये; यावत् इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि इत्यादि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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