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________________ 352 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3] मायी णं तस्स ठाणस्स प्रणालोइयपडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स पाराहणा। [19-3] मायी मनुष्य उस स्थान (अपने द्वारा किये गए वैक्रियकरणरूप प्रवृत्तिप्रयोग) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना (यदि) काल करता है, तो उसके आराधना नहीं होती। (1) अमायी णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ प्रत्थि तस्स प्राराहणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति" / / तइय सए : चउत्थो उद्देसो समत्तो। [16-4] (किन्तु पूर्व मायी जीवन में अपने द्वारा किये गए वैक्रियकरणरूप) उस (विराधना-) स्थान के विषय में पश्चात्ताप (आत्मनिन्दा) करके अमायी (बना हुआ) मनुष्य (यदि) आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके अाराधना होती है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-विकुर्वणा से मायी को विराधना और अमायो की प्राराधना--प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि मायी अर्थात् कषाययुक्त प्रमादी विकुर्वणा करके और उक्त वैक्रियकरणरूप दोष की आलोचना-प्रतिक्रमण न करके विराधक होता है; इसके विपरीत वर्तमान में विकुर्वणा न करके पूर्वविवित स्थान का आलोचन-प्रतिक्रमण करके आराधक हो जाता है / मायो द्वारा विक्रिया—जो मनुष्य सरस-स्निग्ध आहार-पानी करके बार-बार वमन-विरेचन करता है, वह मायी--प्रमादी है, क्योंकि वह वर्ण (रूपरंग) तथा बल आदि के लिए प्रणीत भोजनपान तथा वमन करता है / प्राशय यह है कि इस प्रकार इसके द्वारा वैक्रियकरण भी होता है। अमायी विक्रिया नहीं करता-अमायो अकषायित्व के कारण विक्रिया का इच्छुक नहीं होता, इसलिए वह प्रथम तो रूखा सूखा पाहार करता है, तथा वह वमन नहीं करता / यदि उसने पूर्व जीवन में मायी होने से वैक्रियरूप किया था तो उसका आलोचन-प्रतिक्रमण करके अमायो बन गया / इसलिए वह पाराधक हो जाता है।" // तृतीय शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 189 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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