________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४ ] विकुर्वणा से माथी की विराधना और अमायी की आराधना 16. [1] से भंते ! कि मायी विकुवति, अमायो विकुम्वइ ? गोयमा ! मायी विकुम्बइ, नो अमाई विकुवति / [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या मायी (सकषाय प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, अथवा अमायी (अप्रमत्त-कषायहीन) मनुष्य विकुर्वणा करता है ? [19-1 उ.] गौतम ! मायी (प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा नहीं करता। [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव नो अमायो विकुम्वइ ? गोयमा ! मायो णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा भोच्चा वामेति, तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अद्वि-अमिजा बहलीभवंति, पयणुए मंस-सोणिए भवति, जे विय से अहाबादरा पोग्गला ते विय से परिणमंति, तं जहा–सोतिदियत्ताए जाव फासिदियत्ताए, अद्वि-अट्टिमिज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए सुक्कत्ताए सोणियत्ताए / श्रमायी णं लू हं पाण-मोयणं भोच्चा भोच्चा णो वामेइ, तस्स गं तेणं लहेणं पाण-भोयणेणं अद्वि-अदिमिजा. पतणभवति, बहले मंस-सोणिए, जे वि य से प्रहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति; तं जहा उच्चारत्ताए पासवणत्ताए जाव' सोणियत्ताए / से तेण?णं जाव नो अमायो विकुबइ। 19-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि मायी अनगार विकुर्वणा करता .. है, अमायो विकुर्वणा नहीं करता ? [16-2 उ.] गौतम ! मायी (प्रमत्त) अनगार प्रणीत (वृतादि रस से सरस-स्निग्ध) पान और भोजन करता है। इस प्रकार बार-बार प्रणीत पान-भोजन करके वह वमन करता है। उस प्रणीत पान-भोजन से उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा सघन (ठोस या गाढ) हो है; उसका रक्त और मांस प्रतनु (पतला-- अगाढ़) हो जाता है। उस भोजन के जो यथाबादर (यथोचित स्थूल) पुद्गल होते हैं, उनका उस-उस रूप में परिणमन होता है / यथा--श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रियरूप में (उनका परिणमन होता है।); तथा हड्डियों, हड्डियों की मज्जा, केश, श्मश्रु (दाढी-मूछ), रोम, नख, वीर्य और रक्त के रूप में वे परिणत होते हैं। अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य तो रूक्ष (रूखा-सूखा) पान-भोजन का सेवन करता है और ऐसे रूक्ष पान-भोजन का उपभोग करके वह वमन नहीं करता। उस रूक्ष पान-भोजन (के सेवन) से उसकी हड्डियाँ तथा हड्डियों को मज्जा प्रतनु (पतली-प्रगाढ) होती है और उसका मांस और रक्त गाढ़ा (घन) हो जाता है। उस पान-भोजन के जो यथाबादर (यथोचित स्थूल) पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उस-उस रूप में होता है। यथा--उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), यावत् रक्तरूप में (उनका परिणमन हो जाता है।) अत: इस कारण से अमायी मनुष्य, विकुर्वणा नहीं करता; (मायी मनुष्य ही करता है।) 1. 'जाव' शब्द सूचक पाठ इस प्रकार है- खेलत्ताए, सिंधागताए, वैतत्ताए, पित्तत्ताए, पूअत्ताए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org