________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [61 न करने और भगवान् महावीर के समक्ष शंका व्यक्त करने पर उसी (पूर्वोक्त) समाधान को सत्य प्रमाणित करने पर श्रमण निन्थों द्वारा माकन्दीपुत्र से क्षमायाचना करने का प्रतिपादन है। फलितार्थ-कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव अपने-अपने काय से निकल कर सीधे मनुष्यभव प्राप्त करके उसी भव में सिद्ध -बुद्ध-मुक्त हो सकता है / तेजस्काय और वायुकाय से निकला हुआ जीव मनुष्यभव प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए यहाँ उनकी अन्तक्रिया सम्बन्धी पृच्छा नहीं की गई है / ' 8. तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उढाए उ8 इ, उ० 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 एवं वदासी अणगारस्स णं भते ! भावियप्पणो सव्वं कम्मं वेदेमाणस्स, सव्वं कम्मं निज्जरेमाणस्स, सव्वं मारं मरमाणस्स, सव्वं सरोरं विष्पजहमाणस्स, चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स, चरिमं कम्मं निज्जरेमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स, चरिम सरोरं विष्पजहमाणस्स, मारणंतियं कम्मं वेदेमाणस्स, मारणंतियं कम्म निज्जरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निज्जरापोग्गला, सुहमा गं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वं लोग पिगं ते ओगाहित्ताणं चिट्ठति ? हंता, मागंदियपुत्ता! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव प्रोगाहित्ताणं चिट्ठति / [8 प्र.वह माकन्दिकपुत्र अनगार अपने स्थान से उठे और श्रमण भगवान महावीर के पास पाए / उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा - 'भगवन् ! सभी कर्मों को वेदते (भोगते) हुए, सर्वकर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीर को छोड़ते हुए तथा चरम कर्म को बेदते हुए, चरम कर्म की निर्जरा करते हुए, चरम मरण से मरते हुए, चरमशरीर को छोड़ते हुए एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, निर्जरा करते हुए, मारणान्तिक मरण से मरते हुए, मारणान्तिक शरीर को छोड़ते हुए भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा के पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! क्या वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ? उ.] हाँ, माकन्दिक-पुत्र ! तथाकथित (पूर्वोक्त) भावितात्मा अनगार के यावत् वे चरम निर्जरा के पुद्गल समग्न लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं। विवेचन-भावितात्मा अनगार का अर्थ है—ज्ञानादि से जिसकी आत्मा वासित है / यहाँ केवली से तात्पर्य है / सर्व कर्म-वेदन-निर्जरण, सर्वमार-मरण, सर्वशरीरत्याग का तात्पर्य केवली के सर्व कर्म भवोपनाही चार (वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र) कर्म होते हैं / इन्हीं सर्व कर्मों का वेदन अर्थात् अनुभव करना-भोगना। सभी भवोपनाही कर्मों का निर्जरण अर्थात् आत्मप्रदेशों से पृथक् होना / सभी आयुष्य के पुद्गलों की अपेक्षा से अन्तिम मरण सर्वमार है। सर्व अर्थात् 1. (क) भगवतीसूत्र, अ. वत्ति, पत्र 740 / (ख) भगवतीसूत्र (पं. घेवरचन्दजी) भाग-६, पृ. 2671 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org