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________________ 682] :[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र औदारिकादि समस्त शरीरों को छोड़ना-सर्वशरीरत्याग है / चरम कर्म-वेदन-निर्जरण, चरममारमरण एवं चरमशरीरत्याग का तात्पर्य-चरमकर्म वेदन एवं निर्जरण का अर्थ है-आयष्य के चरम समय में वेदन करने योग्य कर्म का वेदन एवं चरमकर्मों को आत्मप्रदेश से दूर करता कर्मनिर्जरण है / चरममारगरण का अर्थ है-पायुष्य के पुद्गलों के क्षय की अपेक्षा से चरम (अन्तिम) मरण से मृत्यु को प्राप्त / चरमशरी रत्याग-चरमावस्था में जो शरीर है, उसे छोड़ना / मारणान्तिक कर्म वेदन एवं निर्जरण-समस्त आयुष्यक्षयरूप मरण के अन्त यानी समीप को मरणान्त कहते हैं, अर्थात्-यायुष्य का चरमसमय / मरणान्त में होने वाला मारणान्तिक, जो भवोपग्राहीत्रयरूप कर्म है, उसका बेदन एवं निर्जरा / मारणान्तिकमार-मृत्यु के अन्तिम क्षणों के प्रायुर्दलिक की अपेक्षा से जो मार अर्थात् मरण हो, वह / मारणान्तिक-शरीरत्याग-प्रायुष्य के अन्तिम समय में जो शरीर हो वह मारणान्तिक शरीर है, उसको छोड़ना मारणान्तिक शरीरत्याग है। चरिमा निज्जरापोग्गला : अर्थ-केवली के सर्वान्तिम जो निर्जीर्ण किये हुए कर्मदलिक हैं, वे चरम निर्जरा-पुद्गल हैं / इन पुद्गलां को भगवान् ने सूक्ष्म कहा है। ये सम्पूर्ण लोक को अभिव्याप्त करके रहते हैं।' [9-1] छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसि निज्जरापोग्गलाणं किंचि आगत्तं वा णाणत्तं वा० ? एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव वेमाणिया जाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति प्राहारैति, से तेण?णं निक्खेको माणितन्यो त्ति ण पासंति, आहारैति / -1 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व और नानात्व को जानता-देखता है ? (6-1 उ.] हे माकन्दिकपुत्र ! प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम इन्द्रियोदशक के अनुसार, यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। यावत्-इनमें जो उपयोगयुक्त हैं, वे (उन निर्जरापुद्गलों को) जानते, देखते और आहाररूप में ग्रहण करते हैं, इस कारण से हे माकन्दिकपुत्र ! यह कहा जाता है कि.... यावत् जो उपयोगरहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते देखते नहीं, किन्तु उन्हें बाहरणग्रहण करते हैं, इस प्रकार (यहाँ समग्र) निक्षेप (प्रज्ञापनासूत्र गत वह पाठ) कहना चाहिए / [9-2] गैरइया णं भंते ! णिज्जरापोग्गला ण जाणति, ण पासंति, आहारेंति ? एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं / [6.2 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं ? [9-3 उ.] हाँ, वे उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते नहीं. किन्तु ग्रहण करते हैं, इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक तक जानना चाहिए / 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति. पत्र 741 2. यहां मौलिक सुत्र यहीं तक है। किन्तु वृत्तिकार ने इससे प्रागे का प्रज्ञापनासूत्रीय पाठ मूलवाचना में स्वीकृत किया है। -सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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