________________ 440] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का मखली नाम का पिता था। उस मंखजातीय मंखली की भद्रा नाम को भार्या (पत्नी) थो / वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) थी। किसी समय वह भद्रा नामक भार्या गर्भवती हुई। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में गोशालक के जिन होने के दावे का खण्डन करते हुए भगवान ने उसके पिता-माता का परिचय देकर कहा-मखली की भार्या भद्रा के गर्भ में गोशालक पाया / ' शरवण-सग्निवेश में गोबहुल ब्राह्मण को गोशाला में मंखलि-भद्रा का निवास, गोशालक का जन्म और नामकरण 15. तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे नामं सन्निवेसे होत्था, रिथिमिय जाव सन्निभप्पगासे पासादीए 4 / [15] उस काल उस समय में 'शरवण' नामक सन्निवेश (नगर के बाहर का प्रदेश–उपनगर) था। वह ऋद्धि-सम्पन्न, उपद्रव-रहित यावत् देवलोक के समान प्रकाश वाला और मन को प्रसन्न करने वाला था, यावत् प्रतिरूप था। 16. तत्थ णं सरवणे सन्निवेसे गोबहुले नामं माहणे परिवसति अजाव अपरिभूते रिउव्वेद जाव सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था। तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला यावि होत्था / [16] उस सन्निवेश में 'गोबहुल' नामक एक ब्राह्मण (माहन) रहता था / वह प्राढ्य यावत् अपराभूत था / वह ऋग्वेद आदि बैदिकशास्त्रों के विषय में भलीभांति निपुण था। गोबहुल ब्राह्माण की एक गोशाला थी। 17. तए णं से मंखलो मखे अन्नदा कदायि भद्दाए भारियाए गुन्विणीए सद्धि चित्तफलगहस्थगए मंखत्तणेणं अपागं भावमाणे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सरवणे सग्निवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेति, भंड० क० 2 सरवणे सन्निवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खारियाए अडमाणे वसहीए सम्वनो समंता मागणगवेसणं करेति, वसहीए सन्चो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणे अन्नत्थ वसहि अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माणस्स गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए / [17] एक दिन वह मंखली नामक भिक्षाचर (मंख) अपनी गर्भवती भद्रा भार्या को साथ लेकर निकला। वह चित्रफलक हाथ में लिये हए चित्र बता कर आजीविका करने वाले भिक्षको की वृत्ति से (मखत्व से) अपना जीवनयापन करता हुआ, क्रमश: ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ जहाँ शरवण नामक सनिवेश था और जहाँ गोबहुल ब्राह्मण को गोशाला थी, वहां आया। फिर उसने गोबल ब्राह्मण को गोशाला के एक भाग में अपना भाण्डोपकरण (सामान) रखा। तत्पश्चात् वह शरवण सन्निवेश में उच्च-नीच-मध्यम कुलों के गृहसमूह में भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुमा 1. वियाहरणत्तिसुतं भा. 2, (मू. पा. टिप्पण) पृ. 691 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org