________________ प्रादि सम्पूर्ण लोक में व्याप्त नहीं है पर गति और स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है। अतः धर्म-अधर्म की सहज प्रावश्यकता है / यह सत्य है कि लोक है, क्योंकि वह ज्ञान गोचर है। पर प्रलोक इन्द्रियातीत है / यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अलोक है या नहीं ? पर जब हम लोक का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो सहज ही प्रलोक का अस्तित्व भी स्वीकार हो जाता है। जिसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल दव्य होते हैं वह लोक है। इसके विपरीत प्रलोक में केवल आकाश द्रव्य ही है। धर्म और अधर्म द्रव्य के प्रभाव में अलोक में जीव और पुदगल भी नहीं हैं। काल की तो वहाँ अवस्थिति है ही नहीं। प्रस्तुत प्रसंग से यह सहज परिज्ञात होता है कि महावीर युग में भगवान महावीर के श्रमणोपासक तत्त्वविद् थे / वे अन्य तीथिकों को जैनदर्शन के मुरु-गम्भीर रहस्यों को समझाने में समर्थ थे / आज भी पावश्यकता है कि श्रमणोपासक श्रावक तत्त्वविद् बनें। जैनदर्शन के गम्भीर रहस्यों का अध्ययन कर स्वयं के जीवन को महान बनाएँ तथा अन्य दार्शनिकों को भी जनदर्शन का सही एवं विशुद्ध रूप बतायें / पाप और उसका फल भगवतीसूत्र शतक 7 उद्देशक 10 में कालोदाई अन्यतीथिक ने गणधर गौतम से जिज्ञासा व्यक्त की थी। वही कालोदाई जब भगवान के समोसरण में पहुँचा तो भगवान महावीर ने पञ्चास्तिकाय का विस्तार से निरूपण कर उसके संशय को नष्ट किया। कालोदाई, स्कन्धक की भाँति श्रमण भगवान महावीर के पास प्रवजित होते हैं। ग्यारह अंगों का अध्ययन कर जीवन की सांध्यवेला में संथारा कर मुक्त होते हैं। यहां यह स्मरण रखना चाहिए कालोदाई ने भगवान महावीर से यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि पाप कर्म अशुभ फल वाला क्यों है ? भगवान महावीर ने समाधान दिया था कि कोई व्यक्ति सुन्दर सुसज्जित थाली में 18 प्रकार के शाक आदि से युक्त विष-मिश्रित भोजन करता है। वह विष-मिश्रित भोजन प्रारम्भ में सुस्वादु होने के कारण अच्छा लगता है पर उसका परिणाम ठीक नहीं होता। वैसे ही पाप कर्म का प्रारम्भ अच्छा लगता है परन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। दूसरा व्यक्ति विविध प्रकार की औषधियों से युक्त भोजन करता है। पौषधियों के कारण वह भोजन कट होता है पर वह भोजन स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। वैसे ही शुभ कर्म प्रारम्भ में कठिन होते हैं पर उसका फल श्रेयस्कर होता है। इस प्रकार इस कथानक में जीवन के लिए चिन्तनीय सामग्री प्रस्तुत की गई है। सोमिल ब्राह्मण के विचित्र प्रश्न भगवतीसूत्र शतक 18 उद्देशक 10 में सोमिल ब्राह्मण का वर्णन है। वह वैदिक परम्परा का महान् ज्ञाता था / उसके अन्तर्मानस में जिगीषु वृत्ति पनप रही थी। वह चाहता था कि मैं शब्दजाल में भगवान् महावीर को उलझा कर निरुत्तर कर दूं। इसी भावना से उसने भगवान महावीर के सामने अपने प्रश्न प्रस्तुत किए—"क्या आप यात्रा, यापनीय, अव्यावाध और प्रासुक विहार करते हैं ? आपकी यात्रा आदि क्या है ?" उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-तप, यम, संयम, स्वाध्याय और ध्यान आदि में रमण करता है, यही मेरी यात्रा है। यापनीय के दो प्रकार हैं-इन्द्रिययापनीय, नोइन्द्रिययापनीय / पांचों इन्द्रियाँ मेरे प्राधीन हैं और क्रोध, मान आदि कषाय मैंने विच्छिन्न कर दिए हैं, इसलिए वे उदय में नहीं आते। इसलिए मैं इन्द्रिय और नो-इन्द्रिययापनीय हूँ। वात, पित्त, कफ, ये शरीर सम्बन्धी दोष मेरे उपशान्त हैं, वे उदय में नहीं पाते। इसलिए मुझे अव्यावाध भी है / मैं पाराम, उद्यान, देवकुल, सभास्थल, प्रति स्थलों पर जहाँ स्त्री, पशु और [72] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org