________________ होने पर भी पानी के अभाव में मछली तर नहीं सकती। जब मछली तैरना चाहती है तभी उसे पानी की सहायता लेनी पड़ती है। वैसे ही जीव और पुदगल जब गति करता है, तभी धर्मास्तिकाय या धर्म द्रव्य की सहायता ली जाती है। जीव और पुदगल में गति और स्थिति ये दोनों क्रियाएं सहज रूप में होती हैं। इनका स्वभाव न केवल गति करना और न केवल स्थिति करना ही है। किसी समय किसी में गति होती है तो किसी समय किसी में स्थिति होती है। धर्म और अधर्म को मानना इसलिये आवश्यक है कि वह गति और स्थिति में निमित्त द्रव्य है। उसीसे लोक और अलोक का विभाजन होता है। गति और स्थिति का उपादानकारण जीव और पुदगल स्वयं है और निमित्तकारण धर्म और अधर्म द्रव्य है। भगवतीसूत्र शतक 13 उद्देशक 4 में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! गतिसहायक तत्त्व से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान दिया कि-गौतम ! गति का सहायक नहीं होता तो कोन आता और कौन जाता? शब्द की तरंगें किस प्रकार फैलती हैं ? आँख किस प्रकार खुलती है ? कौन मनन करता है ? कौन बोलता है ? कौन हिलता, डोलता है ? यह विश्व अचल ही होता। जो चल है उन सब का मालम्बन तत्व गतिसहायक तत्त्व ही है। गणधर गौतम ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत को-भगवन् ! स्थिति का सहायक तत्त्व (अधर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा--गौतम ! स्थिति का सहायक नहीं होता तो कौन खड़ा होता, कौन बैठता? किस प्रकार से सो सकता? कौन मन को एकाग्र करता? कौन मौन करता ? कौन निष्पंद बनता ? निमेष कैसे होता ? यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर है उस सबका आलम्बन स्थितिसहायक तत्त्व ही है / अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में गति को तो यथार्थ माना गया है किन्तु गति के माध्यम के रूप में 'धर्म' जैसे किसी विशेष तत्व की प्रावश्यकता अनुभव नहीं की गई / आधुनिक भौतिक विज्ञान ने 'ईथर' के रूप में गति-सहायक एक ऐसा तत्व माना है जिसका कार्य धर्म द्रव्य से मिलता-जुलता है। ईथर आधुनिक भौतिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शोध है। ईथर के सम्बन्ध में भौतिकविज्ञानवेत्ता डॉ. ए. एस. एडिग्टन लिखते हैं-आज यह स्वीकार कर लिया गया है कि ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है, भौतिक की अपेक्षा उसकी प्रकृति भिन्न है, भूत में प्राप्त पिण्डत्व और धनत्व गुणों का ईथर में अभाव होगा परन्तु उसके अपने नये और निश्चयात्मक गुण होंगे........ईथर का अभौतिक सागर / अलबर्ट आइन्सटीन के अपेक्षाबाद के सिद्धान्तानुसार 'ईथर' अभौतिक, अपरिमाणविक, अविभाज्य, प्रखण्ड, आकाश के समान व्यापक, प्ररूप, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है। धर्मद्रव्य और ईथर पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करते हुए प्रोफेसर जी. प्रार. जैन लिखते हैं कि यह प्रमाणित हो गया है कि जैन दर्शनकार व प्राधनिक वैज्ञानिक यहाँ तक एक हैं कि धर्मद्रव्य या ईथर प्रभौतिक, अपरिमाणविक, अविभाज्य, प्रखण्ड, आकाश के समान व्यापक, अरूप, गति का माध्यम और अपनेआप में स्थिर है। धर्म और अधर्म के बिना लोक की व्यवस्था नहीं होती। गति-स्थिति निमित्तक द्रव्य से लोक-ग्रलोक का विभाजन होता है। प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त दोनों कारणों की आवश्यकता है। जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य गतिशील हैं। गति के उपादानकारण जीव और पुदगल स्वयं हैं। धर्म, अधर्म ये दोनों गति और स्थिति में सहायक हैं। इसलिए निमित्तकारण है। हवा स्वयं गतिशील है। पृथ्वी, पानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org