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________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [177 16. तणुवाए जाव छट्ठा पुढवी, एयाइं अट्ठ फासाइं। [16] छठा तनुवात, धनवात, घनोदधि और छठो पृथ्वी, ये सब आठ स्पर्श वाले हैं। 17. एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया तहा जाव पढमाए पुढवीए भाणियब्बं / [17| जिस प्रकार सातवीं पृथ्वी की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यावत् प्रथम पृथ्वी तक जानना चाहिए। 18. जंबुद्दोवे जाव' सयंभुरमणे समुद्दे, सोहम्मे कप्पे जाव' ईसिपम्भारा पुढवी, नेरइयावासा जाव' वेमाणियावासा, एयाणि सधाणि अटफासाणि / [18] जम्बूद्वीप से लेकर यावत् स्वयम्भूरमण समुद्र तक, सौधर्मकल्प से यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक नैरयिकावास से लेकर यावत् वैमानिकवास तक सब आठ स्पर्श वाले हैं। विवेचन-सप्तम अवकाशान्तर से वैमानिकवास तक में वर्णादिप्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 12 से 18 तक) में सप्तम अवकाशान्तर, सप्तम तनुवात, सप्तम घनवात, सप्तम घनोदधि, सप्तम पृथ्वी, छठा अवकाशान्तर, छठा तनूवात-धनवात-घनोदधि, छठी पृथ्वी, तथा पंचम-चतुर्थ-तृतीयद्वितीय-प्रथम नरकपृथ्वी एवं जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक, सौधर्म देवलोक से लेकर ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी तक, और नैरयिकावास से लेकर वैमानिकवास तक में वर्णादि की प्ररूपणा की गई है। "अवकाशान्तर' आदि पारिभाषिक शब्दों का स्वरूप--प्रथम और द्वितीय नरकपृथ्वी के अन्तराल (बीच) में जो प्राकाशखण्ड है, वह 'प्रथम अवकाशान्तर' कहलाता है। इस अपेक्षा से सप्तम नरक-पृथ्वी से नीचे का 'आकाशखण्ड' सप्तम अवकाशान्तर है / उसके ऊपर सप्तम तनुवात है, उसके ऊपर सातवाँ धनवात है और उसके ऊपर सातवाँ घनोदधि है और सातवें घनोदधि से ऊपर सप्तम नरकपृथ्वी है / इसी क्रम से प्रथम नरकपृथ्वी तक जानना चाहिए।' अवकाशान्तर जितने भी हैं, वे अाकाश रूप हैं, और प्राकाश अमूर्त होने से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से सर्वथा रहित है। तनुवात, घनवात, घनोदधि एवं नरकपृथ्वी आदि पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। अतएव वे वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं और वादरपरिणाम वाले होने से इनमें शीतउष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, मृदु-कठिन, हल्का-भारी, ये पाठों ही स्पर्श पाए जाते हैं / 1. 'जाब' पद लवणसमुद्र आदि पदों का सूचक है। 2. यहाँ जाव' पद असूरकूमारवास ग्रादि तथा भवन, नगर, विमान तथा तिर्यग्लोक में स्थित नगरियों का सूचक है। 3. जान पद से ईशान सनत्कुमार, ब्रह्मलोक माहेन्द्र लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्रानत, पारण और अच्युत, नवन वेयक, पाच अनुत्तर विमान और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी समझना चाहिए। 4. विवाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त)प, 589 5. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 574 6. भगवती. अ. वृत्ति पत्र 574 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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