SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1754
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवाँ शतक] [489 घात प्रादि शब्दों के विशेषार्थ - घात - हनन, बध-विनाश, उच्छादन--समूलनाश, उच्चाटन भस्मीकरण-भस्मसात् करना।' निजपाप-प्रच्छादनार्थ गोशालक द्वारा अष्टचरम एवं पानक-अपानक की कपोल-कल्पित. मान्यता का निरूपण 88. जं पि य अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावर्णसि अंबऊणगहत्थगए मज्जयाणं पियमाणे अभिक्खणं जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरति / तस्स वि णं धज्जस्स पच्छायणढताए इमाइं अट्ठ चरिमाई पनवेति, तं जहा---चरिमे पाणे, चरिमे गेये, चरिमे नट्टे, चरिमे अंजलिकम्मे, चरिमे पुक्खलसंवट्टए महामेहे, चरिमे सेयणए गंधहत्थी, चरिमे महासिलाकंटए संगामे, अहं च णं इमोसे ओसप्पिणिसमाए चउबीसाए तित्थकराणं चरिमे तित्थकरे सिशिस्सं जाव अंतं करेस्स। 188 हे पार्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक, जो हालाहला कुम्भारिन की दुकान में पाम्रफल हाथ में लिये हुए मद्यपान करता हुअा यावत् बारबार (गाता, नाचता और) अंजलिकर्म करता हुआ विचरता है, वह अपने उस (पूर्वोक्त मद्यपानादि) पाप को प्रच्छादन करने (ढंकने) के लिए इन (निम्नोक्त) पाठ चरमों (चरम पदार्थों) की प्ररूपणा करता है / यथा--(१) चरम पान, (2) चरमगान, (3) चरम नाट्य, (4) चरम अंजलिकर्म, (5) चरम पुष्कल-संवर्तक महामेध, (6) चरम सेचनक गन्धहस्ती (7) चरम महाशिलाकण्टक संग्राम और (8) (चरमतीर्थकर) 'मैं (मंखलिपुत्र गोशालक) इस अवसपिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थकर हो कर सिद्ध होऊँगा यावत् सब दुःखों का अन्त करूंगा।' 89. जं पि य अज्जो ! गोसाले मंलिपुत्ते सीयलएणं मट्टियापाणएणं आदंचगिउदएणं गायाई परिसिचेमाणे विहरति तस्स वि णं वज्जस्स पच्छायणट्ठयाए इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाइं पन्नवेति। [86] 'हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी के बर्तन में मिट्टी-मिश्रित शीतल पानी द्वारा अपने शरीर का सिंचन करता हुआ विचरता है; वह भी इस पाप को छिपाने के लिए चार प्रकार के पानक (पीने योग्य) और चार प्रकार के अपानक (नहीं पीने योग्य, किन्तु शीतल और दाहोपशमक) की प्ररूपणा करता है। 90. से कि तं पाणए ? पाणए चउन्धिहे पन्नते, तं जहा-गोपुटुए हत्थमद्दियए आयवतत्तए सिलापब्भटए। से तं पाणए। [60 प्र.] पानक (पेय जल) क्या है ? (60 उ.] पानक चार प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) गाय की पीठ से गिरा हुना, 1. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 11, पृ. 690-691 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy