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________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [403 असंख्यातगुण काला पुद्गल तुल्य-असंख्यातगुण काले पुद्गल के साथ और तुल्य अनन्तगुण काला पुद्गल, तुल्य अनन्तगुण काले पुद्गल के साथ भाव से तुल्य है। जिस प्रकार काला वर्ण कहा, उसो प्रकार नोले, लाल, पोले और श्वेत वर्ण के विषय में भी कहना चाहिए / इसी प्रकार सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध और इसी प्रकार तिक्त यावत् मधुर रस तथा कर्कश यावत् रूक्ष स्पर्श वाले पुद्गल के विषय में भावतुल्य का कथन करना चाहिए। औदयिक भाव प्रौदयिक भाव के साथ (भाव-) तुल्य है, किन्तु वह प्रौदयिक भाव के सिवाय अन्य भावों के साथ भावतः तुल्य नहीं है / इसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भाव के विषय में भी कहना चाहिए / सान्निपातिक भाव, सान्निपातिक भाव के साथ भाव से तुल्य है / इसी कारण से, हे गौतम ! 'भावतुल्य' भावतुल्य कहलाता है। विवेचन--भावतुल्यता के विविध पहल-प्रस्तुत में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के सर्वप्रकारों में से प्रत्येक प्रकार के साथ उसी के प्रकार की भावतुल्यता है। जैसे—एक गुण काले वर्ण वाले पुद्गल के साथ एक गुण काले वर्ण वाला पुद्गल भाव से तुल्य है। इसी प्रकार एक गुण नीले पुद्गल की एक गुण नीले पुद्गल के साथ भावतुल्यता है / इसी प्रकार रस, गन्ध एवं स्पर्श के विषय में भी समझ लेना चाहिए।' तुल्लसंखेज्जगुणकालए इत्यादि का आशय-यहाँ जो 'तुल्य' शब्द ग्रहण किया है यह संख्यात के संख्यात भेद होने से संख्यातमात्र के साथ तुल्यता बताने हेतु नहीं है, अपितु समान संख्यारूप अर्थ के प्रतिपादन के लिए है। इसी प्रकार असंख्यात और अनन्त के विषय में भी समझ लेना चाहिए। प्रौदयिक आदि पांच भावों की अपने-अपने भाव के साथ सामान्यतः भावतुल्यता है, किन्तु अन्य भावों के साथ नहीं / औदायिक आदि भावों के लक्षण--औदयिक-कर्मों के उदय से निष्पन्न जीव का परिणाम औदयिक भाव है, अथवा कर्मों के उदय से निष्पन्न नारकत्वादि-पर्यायविशेष प्रौदयिक भाव है। ____ औपमिक–उदयप्राप्त कर्म का क्षय और उदय में न आए हुए कर्म का अमुक काल तक रुकना औपशमिक भाव है, अथवा कर्मों के उपशम से होने वाला जीव का परिणाम औपशमिक भाव कहलाता है / यथा-प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र / क्षायिक कर्मों का क्षय-प्रभाव ही क्षायिक है। अथवा कर्मों के क्षय से होने वाला जीव का परिणाम क्षायिक भाव है। यथा-केवलज्ञानादि / क्षायोपशमिक–उदयप्राप्त कर्म के क्षय के साथ विपाकोदय को रोकना क्षायोपशमिक भाव है, अथवा कर्मों के क्षय तथा उपशम से होने वाला जीव का परिणाम क्षायोपशमिक भाव कहलाता है। यथा----मतिज्ञानादि / क्षायोपशमिक भाव में विपाकवेदन नहीं होता, प्रदेशवेदन होता है, जबकि औपमिक भाव में दोनों प्रकार के बेदन नहीं होते। यही क्षायोपशमिक भाव और औपशमिक भाव में अन्तर है / जीव का अनादिकाल से जो स्वाभाविक परिणाम है, वह पारिणामिक भाव है। औदयिक प्रादि दो-तीन आदि भावों के संयोग से उत्पन्न होने वाला भाव साग्निपातिक भाव है।३ 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूल-पाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 676 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 649 3. (क) बही, अ. वृत्ति, पत्र 649 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2334 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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