________________ [ व्याल्याप्रशस्तितून उच्छ्वास को तथा पाभ्यन्तर एवं बाह्य नि:श्वास को हम न जानते हैं, और न देखते हैं। तो हे भगवन् ! क्या ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव प्राभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास लेते हैं तथा प्राभ्यन्तर और बाह्य निःश्वास छोड़ते हैं ? [3 उ.] हाँ, गौतम ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी पाभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास लेते हैं और आभ्यन्तर एवं बाह्य नि:श्वास छोड़ते हैं। 4. [1] कि णं भंते ! एते जीवा प्राणमति वा पागमति वा उस्ससंति वा नीससंति का? गोयमा ! व्यतो गं प्रणंतपएसियाई दवाई, खेत्तमो गं असंखेज्जपएसोगाढाई, कालो अन्नय रद्वितीयाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। [4-1 प्र.] भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, किस प्रकार के द्रव्यों को बाह्य और प्राभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं ? [4-1 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाले द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यप्रदेशों में रहे हुए द्रव्यों को, काल की अपेक्षा किसी भी प्रकार की स्थिति वाले (एक समय की, दो समय की स्थिति वाले इत्यादि) द्रव्यों को, तथा भाव को अपेक्षा वर्ण वाले, गन्ध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। [2] जाइं भावो वण्णमंताई प्राण पाण ऊस० नीस० ताई कि एगवण्णाई प्राणमंति वा पाणमंति ऊस० नीस? पाहारगमो नेयव्यो जाव ति-चउ-पंचदिसि / [4-2 प्र.] भगवन् ! वे पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भाव की अपेक्षा वर्ण वाले जिन द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं, क्या वे द्रव्य एक वर्ण वाले हैं ? [4-2 उ.] हे गौतम! जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र के अद्वाईसवें आहारपद में कथन किया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए। यावत् वे तीन, चार, पाँच दिशाओं की ओर से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं / 5. कि णं भंते ! नेरइया प्रा०पा० उ० नी? तं चैव जाव नियमा प्रा० पा० उ० नी० / जीवा एगिदिया वाघाय-निवाघाय भाणियम्वा / सेसा नियमा छहिसि / [5 प्र.] भगवन् ! नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों को बाह्य और प्राभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? [5 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्वकथनानुसार ही जानना चाहिए और यावत्---वे नियम से (निश्चितरूप से) छहों दिशा से पुद्गलों को बाह्य एवं प्राभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org