________________ द्वितीय शतक / उद्देशक-१] [165 जीवसामान्य और एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहना चाहिए कि यदि व्याघात न हो तो वे सब दिशाओं से बाह्य और प्राभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के लिए पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित् चार दिशा से, और कदाचित् पांच दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। शेष सब जीव नियम से छह दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। विवेचन-एकेन्द्रियादि जीवों में श्वासोच्छवास सम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 2 से 5 तक) में एकेन्द्रिय जीवों, नारकों आदि के श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में शंका-समाधान प्रस्तुत किया गया है। प्राणमंति पाणमंतिउ स्ससंति नीससंति-वत्तिकार ने आण-प्राण और ऊस-नीस इन दोनों-दोनों को एकार्थक माना है। किन्तु प्राचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापनावत्ति में अन्य आचार्य का मत देकर इनमें अन्तर बताया है-मानमंति और प्राणमन्ति ये दोनों अन्तःस्फुरित होने वाली उच्छ्वास-निःश्वासक्रिया के अर्थ में, तथा उच्छ वसन्ति और नि:श्वसन्ति ये दोनों बाह्यस्फुरित उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए—(प्रज्ञापना-म०-वृत्ति, पत्रांक 220) / एकेन्द्रिय जीवों के श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी शंका क्यों?—यद्यपि आगमादि प्रमाणों से पृथ्वीकायादि एकेन्द्रियों में चैतन्य सिद्ध है और जो जीव है, वह श्वासोच्छ्वास लेता ही है, यह प्रकृतिसिद्ध नियम है, तथापि यहाँ एकेन्द्रिय जीवों के श्वासोच्छ्वास सम्बन्धी शंका का कारण यह है कि मेंढक आदि कतिपय जीवित जीवों का शरीर कई बार बहुत काल तक श्वासोच्छ्वास-रहित दिखाई देता है, इसलिए स्वभावत: इस प्रकार की शंका होती है कि पृथ्वीकाय आदि के जीव भी क्या इसी प्रकार के हैं या मनुष्यादि की तरह श्वासोच्छ्वास वाले हैं ? क्योंकि पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों का श्वासोच्छ्वास मनुष्य प्रादि की तरह दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी का समाधान भगवान् ने किया है। वास्तव में, बहुत लम्बे समय में श्वासोच्छ्वास लेने वालों को भी किसी समय में तो श्वासोच्छ्वास लेना ही पड़ता है। श्वासोच्छवास-योग्य पुद्गल-प्रज्ञापनासूत्र में बताया गया है कि वे पुद्गल दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, यावत् पाँच वर्ण वाले होते हैं। वे एक गुण काले यावत् अनन्तगुण काले होते हैं। व्याघात-अव्याघात–एकेन्द्रिय जीव लोक के अन्त भाग में भी होते हैं, वहाँ उन्हें अलोक द्वारा व्याघात होता है। इसलिए वे तीन, चार या पाँच दिशानों से ही श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल ग्रहण करते हैं, किन्तु व्याधातरहित जीव (नैरयिक आदि) सनाड़ी के अन्दर ही होते हैं, अत: उन्हें ब्याधात न होने से वे छहों दिशामों से श्वासोच्छ्वास-पुद्गल ग्रहण कर सकते हैं।" वायुकाय के श्वासोच्छवास, पुनरुत्पत्ति, मरण एवं शरीरादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 6. बाउयाए ण भंते ! बाउयाए चेव प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ? हंता, गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए जाव नोससंति वा। [6 प्र.] हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और प्राभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org