________________ 166 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 उ.] हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है। 7. [1] वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव प्रणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उदाइत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चायाति ? हंता, गोयमा ! आव पच्चायाति / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या बायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख वार मर कर पुनः पुनः (वायुकाय में ही) उत्पन्न होता है ? 7-1 उ.] हां, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मर कर पुनः पुनः वहीं उत्पन्न होता है। [2] से भंते किं पुढे उद्दाति ? अपुढे उहाति ? गोयमा ! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे उद्दाइ / [7-2 प्र.] भगवन् ! क्या वायुकाय स्वकायशस्व से या परकायशस्त्र से स्पृष्ट हो (छ) कर मरण पाता है, अथवा अस्पृष्ट (बिना टकराए हुए) ही मरण पाता है ? [7-2 उ: गौतम ! वायुकाय, (स्वकाय के अथवा परकाय के शस्त्र से स्पृष्ट होकर मरण पाता है, किन्तु स्पृष्ट हुए बिना मरण नहीं पाता। [3] से भंते ! कि ससरीरी निक्खमइ, प्रसरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय प्रसरीरी निक्खमइ / से केणढणं भंते ! एवं कुच्चाइ सिय ससरीरी निक्खमह, सिय प्रसरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! बाउकायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा--पोरालिए घेउविए लेयए कम्मए / ओरालिय-वेउब्धियाई विष्पजहाय तेय-कम्महि निक्खमति, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सिय ससरीरी सिय असरीरी निक्खमइ / [7-3 प्र.] भगवन् ! वायुकाय मर कर (जब दूसरी पर्याय में जाता है, तब) सशरीरी (शरीरसहित) होकर जाता है, या शरीररहित (अशरीरी) होकर जाता है ? [7-3 उ.] गौतम ! वह कथञ्चित् शरीरसहित होकर जाता (निकलता) है, कथंचित् शरीररहित हो कर जा [प्र. भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वायुकाय का जीव जब निकलता (दूसरी पर्याय में जाता है, तब वह कञ्चित् शरीरसहित निकलता (परलोक में जाता है, कथञ्चित् शरीररहित होकर निकलता (जाता) है ? उ. गौतम ! वायुकाय के चार शरीर कहे गए हैं; वे इस प्रकार -(1) औदारिक, (2) वैक्रिय, (3) तैजस और (4) कार्मण। इनमें से वह ओदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे भव में जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीररहित जाता है और तेजस तथा कार्मण शरीर को साथ लेकर जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीरसहित (सशरीरो) जाता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वायुकाय मर कर दूसरे भव में कथञ्चित् (किसी अपेक्षा से) सशरीरी जाता है भौर कथञ्चित् अशरीरी जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org