________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-1] [ 167 विवेचन-वायुकाय के श्वासोच्छवास, पुनरुत्पत्ति, मरण, एवं शरीरादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तरप्रस्तुत दो सूत्रों में वायुकाय के श्वासोच्छ्वास प्रादि से सम्बन्धित जिज्ञासाओं का समाधान अंकित है। वायुकाय के श्वासोच्छ्वास-सम्बन्धी शंका-समाधान सामान्यतया श्वासोच्छ्वास वायुरूप होता है, अतः वायुकाय के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, तेज एवं वनस्पति तो वायुरूप में श्वासोछ्वास ग्रहण करते हैं, किन्तु वायुकाय तो स्वयं वायुरूप है तो उसे श्वासोच्छ्वास के रूप में क्या दूसरे बायु की आवश्यकता रहती है ?, यही इस शंका के प्रस्तुत करने का कारण है। दूसरी शंका-'यदि वायुकाय दूसरी वायु को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है, तब तो दूसरी वायु को तीसरी वायु की, तीसरी को चौथी की आवश्यकता रहेगी। इस तरह अनवस्थादोष प्राजाएगा।' इस शंका का समाधान यह है कि वायुकाय जीव है, उसे दूसरी वायु के रूप में श्वासोच्छ्वास को प्रावश्यकता रहती है, लेकिन ग्रहण की जाने वाली वह दूसरी वायु सजीव नहीं, निर्जीव (जड़) होती है, उसे किसी दूसरे सजीव वायुकाय की श्वासोच्छवास के रूप में आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए अनवस्थादोष नहीं आ सकता। इसके अतिरिक्त यह जो वायुरूप उच्छ्वासनिःश्वास हैं, वे वायुकाय के औदारिक और वैक्रियशरीररूप नहीं हैं, क्योंकि अान-प्राण तथा उच्छ्वास-निःश्वास के योग्य पुद्गल औदारिक शरीर और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा अनन्तगुण-प्रदेशवाले होने से सूक्ष्म हैं, अतएव वे (उच्छ्वास-निःश्वास) चैतन्यवायुकाय के शरीररूप हैं। निष्कर्ष यह कि वह उच्छ्वास-निःश्वासरूप वायु जड़ है, उसे उच्छवास-नि:श्वास की जरूरत नहीं होती। वायुकाय आदि को कायस्थिति-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय, इन चार की कायस्थिति असंख्य अवपिणी और उत्सर्पिणी तक है तथा वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीपर्यन्त है / वायुकाय का मरण स्पृष्ट होकर ही वायुकाय स्व कायशस्त्र से अथवा परकायशस्त्र से स्पृष्ट हो (टकरा) कर ही मरण पाता है, अस्पृष्ट होकर नहीं। यह सूत्र सोपक्रमी आयु वाले जीवों की अपेक्षा से है। मतादीनिर्ग्रन्थों के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण 8. [1] मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्ध भवपवंचे, नो पहीणसंसारे, जो पहोणसंसारवेदणिज्जे, णो वोच्छिण्णसंसारे, णो वोच्छिण्णसंसारवेदणिज्जे, नो निद्रियट्रेनो निट्रिय. करणिज्जे पुणरवि इत्तत्थं हव्वमागच्छति ? हंता, गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव पुणरवि इत्तत्थं हन्नमागच्छइ / [8.1 प्र.] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका 1. 'असंखोसप्पिणी-ओस्सप्पिणी उ एंगिदियाण चउण्हं। ता चेव उ अर्णता, वणस्सइए उ बोधवा // ' -संग्रहणी गाथा 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org