________________ 168] [ व्याल्याप्राप्तिसूत्र संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ (सिद्धप्रयोजन = कृतार्थ) नहीं हुआ, जिसका कार्य (करणीय) समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादी (अचित्त, निर्दोष आहार करने वाला) अनगार पुनः मनुष्यभव प्रादि भावों को प्राप्त होता है ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला मृतादीनिर्ग्रन्थ फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है। [2] से गं भंते ! कि ति पत्तव्वं सिया ? गोयमा ! पाणे ति बत्तन्वं सिया, भूते ति वत्तव्यं सिया, जीवे ति वत्तवं सिया, सत्ते ति वत्तव्वं सिया, विष्णू ति वत्तव्य सिया, वेदा ति वत्तव्य सिया–पाणे भूए जीवे सत्ते विष्णू वेदा ति वत्तव्य सिया। से केपट्टणं भंते ! पामे ति बत्तव्य सिया जाव घेदा ति वत्तव सिया ? गोयमा ! जम्हा प्राणमइ वा पाणमइ वा उस्ससइ या नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव सिया। जम्हा भूते भवति मविस्सति य तम्हा भूए ति वत्तव सिया। जम्हा जीवे जोवई जीवत्तं प्राउषं च कम्मं उवनीवइ तम्हा जोवे ति वत्तन्वं सिया जम्हा सत्ते सुभासुभेहि कम्भेहिं तम्हा सत्ते ति बत्तव सिया। जम्हा तित्त-कडुय-कसायंबिल-महुरे रसे जाणइ तम्हा विष्ण ति बत्तन्वं सिया। जम्हा वेदेइ य सुह-दुक्खं तम्हा वेदा ति वत्तहां सिया। से तेण?णं जाव पाणे त्ति वत्तवं सिया जाव वेदा ति बत्तनां सिया। [8-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? [8.2 उ.] गौतम ! उसे कदाचित् 'प्राण' कहना चाहिए, कदाचित् 'भूत' कहना चाहिए, कदाचित् 'जीव' कहना चाहिए, कदाचित् 'सत्व' कहना चाहिए, कदाचित् 'विज्ञ' कहना चाहिए, वदाचित् 'वेद' कहना चाहिए, और कदाचित् 'प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद' कहना चाहिए। [प्र.] हे भगवन् ! उसे 'प्राण' कहना चाहिए, यावत्--'वेद' कहना चाहिए, इसका क्या कारण है ? उ. गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव, बाह्य और प्राभ्यन्तर उच्छ्वास तथा निःश्वास लेता और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिए। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा (तथा वह होने के स्वभाववाला है) इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिए / तथा वह जीव होने से जीता है, जोवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है, इसलिए उसे 'जीव' कहना चाहिए। वह शुभ और अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है, इसलिए उसे 'सत्त्व' कहना चाहिए। वह तिक्त, (तीखा) कटु, कषाय (कसैला), खट्टा और मीठा, इन रसों का वेत्ता (ज्ञाता) है, इसलिए उसे 'विज्ञ' कहना चाहिए, तथा वह सुख-दुःख का वेदन (अनुभव) करता है, इसलिए उसे 'वेद' कहना चाहिए। इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को 'प्राण' यावत्-'वेद' कहा जा सकता है। ___E. [1] मडाई गं भंते ! नियंठ निरुद्ध भवे निरुद्धमवपनंचे जाव निट्ठियटुकरणिज्जे गो पुणरवि इत्तत्थं हव्यमागच्छति ? हंता, गोयमा ! मलाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि इत्तत्थं हवमागच्छति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org