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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [166 [2] से णं भंते ! कि ति बत्तवं सिया? गोयमा ! सिद्ध त्ति वत्तव्वं सिया, बुद्ध ति वतव्वं सिया, मुत्ते त्ति वत्तव्वं पारगए त्ति व०, परंपरगए ति व०, सिद्ध बुद्ध मुत्ते परिनिव्वुडे अंतकडे सव्यदुषखप्पहीणे त्ति वत्तव्वं सिया।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, 2 संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [9-1 प्र.] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा मृतादी (प्रासुकभोजी) अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता ? [9-1 उ.] हाँ गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। [9-2 प्र.] हे भगवन् ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निग्रंथ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए? [9-2 उ.] हे गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्गन्थ को 'सिद्ध' कहा जा सकता है, 'बुद्ध कहा जा सकता है, 'मुक्त' कहा जा सकता है, 'पारगत' (संसार के पार पहुँचा हुआ) कहा जा सकता है, 'परम्परागत' (अनुक्रम से संसार के पार पहुँचा हुआ) कहा जा सकता है / उसे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत् एवं सर्वदुःखप्रहीण कहा जा सकता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर भगवान् गौतम स्वामी श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करते हैं और फिर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करके विचरण करते हैं। विवेचन--मृतादो निर्ग्रन्थ के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण---प्रस्तुत दो सूत्रों (8 और ह) में प्रासुकभोजी (मृतादी) अनगार के मनुष्यादि भवों में भ्रमण का तथा भवभ्रमण के अन्त का; यों दो प्रकार के निर्ग्रन्थों का चित्र प्रस्तुत किया है / साथ ही भवभ्रमण करने वाले और भवभ्रमण का अन्त करने वाले दोनों प्रकार के मृतादी अनगारों के लिए पृथक्-पृथक् विविध विशेषणों का प्रयोग भी किया गया है। मृतादी-'मडाई' शब्द की संस्कृत छाया 'मृतादी' होती है, जिसका अर्थ है-मृत = निर्जीव प्रासुक, अदी = भोजन करने वाला / अर्थात्-प्रासुक और एषणीय पदार्थ को खाने वाला निर्ग्रन्थ अनगार 'मडाई' कहलाता है / अमरकोश के अनुसार 'मृत' शब्द 'याचित'' अर्थ में है / अतः मृतादी का अर्थ हुआ याचितभोजी। 'णिरुद्धमवें' आदि पदों के अर्थ-णिरुद्धभवे=जिसने आगामी जन्म को रोक दिया है, जो चरमशरीरी है / णिरुद्धभवपवंचे = जिसने संसार के विस्तार को रोक दिया है। पहोणसंसारे 1. 'द्वे याचितायाचितयोः यथासंख्यं मतामते'--अमरकोश, द्वितीयकाण्ड, वैश्यवर्ग, इलो-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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