________________ 170] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जिसका चतुर्गतिभ्रमणरूप संसार क्षीण को चुका है। पहीणसंसारवेयणिज्जे--जिसका संसारवेदनीय कर्म क्षीण हो चुका है। वोच्छिण्णसंसारे - जिसका चतुर्गतिकसंसार व्यवच्छिन्न हो चुका है। इत्थत्थं = इस अर्थ को अर्थात्-अनेक बार तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारकगतिगमनरूप बात को। 'इत्थतं' पाठान्तर भी है, जिसका अर्थ है-मनुष्यादित्व आदि / 'इत्यत्तं' का तात्पर्य आचार्यों ने बताया है कि जिसके कषाय उपशान्त हो चुके हैं, ऐसा जीव भी अनन्त प्रतिपात को प्राप्त होता है। इसलिए कषाय की मात्रा थोड़ी-सी भी शेष रहे, वहाँ तक मोक्षाभिलाषी प्राणी को विश्वस्त नहीं हो जाना चाहिए।' पिंगल निम्रन्थ के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिवाजक 10. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाप्रो नगरानो गुणसिलामो चेइयानो पडिनिक्खभइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। [10] उस काल और उस समय में (एकदा) श्रमण भगवान् महावीरस्वामी राजगृह नगर के गुणशील चैत्य (उद्यान) से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। 11. तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नाम नगरी होत्था / वण्णनो / तोसे णं कयंगलाए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे छत्तपलासए नामं चेइए होत्या। वण्णो / तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णनाण-दसणधरे जाव समोसरणं / परिसा निगच्छति / [11] उस काल उस समय में कृतंगला नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औषपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। उस कृतंगला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में छत्रपलाशक नाम का चैत्य था। उसका वर्णन भी (औपपातिक सूत्र के अनुसार) जान लेना चाहिए / वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे / यावत् -- भगवान् का समवसरण (धर्मसभा) हुआ (लगा)। परिषद् (जनता) धर्मोपदेश सुनने के लिए निकली। 12. तीसे णं कयंगलाए नगरीए प्रदूरसामंते सावत्थी नाम नयरी होत्था। वण्णप्रो / तत्थ णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामं कच्चायणसगोत्ते परिवायगे परिवसइ, रिउब्वेदजजुब्वेद-सामवेद-अथव्वणवेद इतिहासपंचमाणं निघंटुछट्ठाणं चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए वारए पारए सडंगवी सद्वितंतविसारए संखाणे सिक्खा-कप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोतिसामयणे अन्नेसु य बहूसु बंभष्णएसु पारिवायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था। [12] उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र से) जान लेना चाहिए। उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक नाम का परिव्राजक (तापस) रहता था / वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इन चार 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति पत्रांक 111 2. 'जाव' शब्द 'अरहा जिणे केवली सबण्ण सम्बदरिसी आगासगएणं छत्तणं' इत्यादि समवसरणपर्यन्त पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org