________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [171 वेदों, पांचवें इतिहास (पुराण), छठे निघण्टु नामक कोश का तथा सांगोपांग (अंगों-उपांगों सहित) रहस्यसहित वेदों का सारक (स्मारक स्मरण कराने वाला-भूले हुए पाठ को याद कराने वाला, पाठक), वारक (अशुद्ध पाठ बोलने से रोकने वाला), धारक (पढ़े हुए वेदादि को नहीं भूलने वाला-धारण करने वाला), पारक (वेदादि शास्त्रों का पारगामी), वेद के छह अंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र) का वेत्ता था। वह षष्ठितंत्र (सांख्यशास्त्र) में विशारद था, वह गणितशास्त्र, शिक्षाकल्प (आचार) शास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, निरुक्त (व्युत्पत्ति) शास्त्र और ज्योतिषशास्त्र, इन सब शास्त्रों में, तथा दूसरे बहुत-से ब्राह्मण और परिव्राजक-सम्बन्धी नीति और दर्शनशास्त्रों में भी अत्यन्त निष्णात था। 13. तत्थ णं सावत्थीए नयरोए पिंगलए नामं नियंठे वेसालियसावए परिवसइ / तए णं से पिंगलए णामं णियंठे वेसालियसावए अण्णदा कयाइं जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, 2 खंदगं कच्चायणसगोतं इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा ! कि सअंते लोके, अणंते लोके 1, सअंते जीवे प्रणते जीवे 2, सयंता सिद्धी अर्णता सिद्धी 3, सअंते सिद्ध अणते सिद्ध 4, केण वा मरणेणं मरमाणे जोवे वडति वा हायति वा 5 ? एतावं ताव प्रायक्वाहि / वुच्चमाणे एवं / [13] उसी श्रावस्ती नगरी में बैशालिक श्रावक-(भगवान् महावीर के वचनों को सुनने में रसिक) पिंगल नामक निर्गन्थ (साधु) था। एकदा वह वैशालिक श्रावक पिंगल नामक निर्ग्रन्थ किसी दिन जहाँ कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक रहता था, वहाँ उसके पास आया और उसने आक्षेप. पूर्वक कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक से पूछा- 'मागध ! (ममधदेश में जन्मे हुए), १-लोक सान्त (अन्त वाला) है या अनन्त (अन्तरहित) है ?, २-जीव सान्त है या अनन्त है ?, ३-सिद्धि सान्त है या अनन्त है ?, ४-सिद्ध सान्त है या अनन्त है ?. ५-किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता (संसार बढ़ाता) है और किस मरण से मरता हुआ जीव घटता (संसार घटाता) है ? इतने प्रश्नों का उत्तर दो (कहो)। 14. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते पिंगलएणं णियंठेगं वेसालोसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिछिए भेदसमावन्ने कलुसमावन्ने णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालियसावयस्स किचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणोए संचिट्ठइ / [14] इस प्रकार उस कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक तापस से वैशालिक श्रावक पिंगल निग्रन्थ द्वारा पूर्वोक्त प्रश्न आक्षेपपूर्वक पूछे, तब स्कन्दक तापस ('इन प्रश्नों के ये ही उत्तर होंगे या दूसरे ?' इस प्रकार) शंकाग्रस्त हुआ, (इन प्रश्नों के उत्तर कैसे हूँ? मुझे इन प्रश्नों का उत्तर कैसे पाएगा? इस प्रकार की) कांक्षा उत्पन्न हुई; उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई (कि अब मैं जो उत्तर दूं, उससे प्रश्नकर्ता को सन्तोष होगा या नहीं ?); उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ (कि मैं क्या करू?) उसके मन में कालुष्य (क्षोभ) उत्पन्न हुआ (कि अब मैं तो इस विषय में कुछ भी नहीं जानता), इस कारण वह तापस, वैशालिक श्रावक पिंगलनिर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका / अतः चुपचाप रह गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org