________________ 172] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 15. तए णं से पिंगलए नियंठे वेतालीसावए खंदयं कच्चायणसगोतं वोच्चं पितच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा ! कि सनंते लोए जाव केण वा मरणेणं मरमाणे जोवे बचइ या हायति वा ? एतावं ताव प्राइक्खाहि वृच्चमाणे एवं।। [15] इसके पश्चात् उस वैशालिक श्रावक पिंगल निन्थ ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो बार, तीन बार भी उन्हीं प्रश्नों का साक्षेप पूछा कि मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? यावत्-किस मरण से मरने से जीव बढ़ता या घटता है ? ; इतने प्रश्नों का उत्तर दो। 16. तए णं से खदए कच्चायणसगोत्ते पिंगलएणं नियंठेणं घेसालोसावएणं दोच्चं पि तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिनिच्छिए मेदसमावणे कलुसमावन्ने नो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालिसावयस्स किचि वि पमोक्खमक्खाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / [16] जब वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायन-गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो-तीन बार पुनः उन्हीं प्रश्नों को पूछा तो वह पुनः पूर्ववत् शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन्न तथा कालुष्य (शोक) को प्राप्त हुआ, किन्तु वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका / अत: चुप होकर रह गया / विवेचन-पिंगलक निग्रंन्य के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिवाजक-प्रस्तुत सात सूत्रों में मुख्य प्रतिपाद्य विषय श्रावस्ती के पिंगलक निर्ग्रन्थ द्वारा स्कन्दक परिव्राजक के समक्ष पांच महत्त्वपूर्ण प्रश्न प्रस्तुत करना और स्कन्दक परिव्राजक का शंकित, कांक्षित प्रादि होकर निरुत्तर हो जाना है। इसी से पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने के लिए शास्त्रकार ने निम्नोक्त प्रकार से क्रमशः प्रतिपादन किया है 1. श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह से बाहर अन्य जनपदों में विहार / 2. श्रमण भगवान् महावीर का कृतंगला नगरी में पदार्पण और धर्मोपदेश / 3. कृतंगला की निकटवर्ती श्रावस्ती नगरी के कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक का परिचय। 4. श्रावस्ती नगरी में स्थित वैशालिकश्रवणरसिक पिंगलक निर्गन्थ का परिचय / 5. पिंगलक निन्थ द्वारा स्कन्दक परिव्राजक के समक्ष उत्तर के लिए प्रस्तुत निम्नोक्त पाँच प्रश्न-(१-२-३-४) लोक, जीव, सिद्धि और सिद्ध सान्त है या अन्तरहित और (5) किस भरण से मरने पर जीव का संसार बढ़ता है, किससे घटता है ? 6. पिंगलक निग्न्थ के ये प्रश्न सुनकर स्कन्दक का शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन और कालुष्ययुक्त तथा उत्तर देने में असमर्थ होकर मौन हो जाना। 7. पिंगलक द्वारा पूर्वोक्त प्रश्नों को दो-तीन बार दोहराये जाने पर भी स्कन्दक परिव्राजक के द्वारा पूर्ववत् निरुत्तर होकर मौन धारण करना।' 1. भगवतीसूत्र मूलपाठ-टिप्पणयुक्त (पं. वेचरदास जी संपादित) भा. 1, पृ. 76 से 78 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org