________________ चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक अनन्तरावगाढ नैरयिकादि के पापकर्मादिबन्ध-सम्बन्धी अनन्तरावगाढ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादि-बन्ध प्ररूपणा 1. अणंतरोगाढए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिए, एवं जहेव अणंतरोक्वन्नएहि नवदंडगसंगहितो उद्देसो भणितो तहेव प्रणतरोगाढएहि वि अहीणमतिरित्तो भाणियम्वो नेरइयाईए जाव वेमाणिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // छब्धीसइमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो // 26-4 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्त रावगाढ नैरयिक ने पापकर्म बांधा था० ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगीय प्रश्न / [1 उ. गौतम ! किसी (अन. नैर.) ने पापकर्म बांधा था, इत्यादि कम से जिस प्रकार अनन्तरोपपन्नक के नौ दण्डकों सहित (द्वितीय) उद्देशक कहा है, उसी प्रकार अनन्तरावगाढ नैरयिक आदि (से लेकर) यावत् वैमानिक तक उन्हीं नौ दण्डकों सहित इस उद्देशक को अन्यूनाधिकरूप से कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-अनन्तरावगाढ : स्वरूप--जो जीव एक भी समय के अन्तर के बिना उत्पत्तिस्थान को अवलम्बित होकर रहता है, वह 'अनन्तरावगाढ' कहलाता है। परन्तु कुछ प्राचार्यों के मतानुसार ऐसा अर्थ करने से अनन्तरोपपन्नक और अनन्तरावगाढ के अर्थ में कोई अन्तर नहीं रहता। अत: इसका यह अर्थ करना चाहिए ---उत्पत्ति के एक समय बाद, फिर एक भी समय के अन्तर बिना उत्पत्तिस्थान की अपेक्षा करके जो रहता है, वह 'अनन्त राबगाढ' कहलाता है तथा उसके पश्चात् एक प्रादि समय का अन्तर हो, वह 'परम्परावगाढ' कहलाता है / दूसरे शब्दों में कहें तो - उत्पत्ति के द्वितीय समयवर्ती अनन्तरावगाढ कहलाता है और उत्पत्ति के तृतीयादि समयवर्ती ‘परम्परावगाढ' कहलाता है, यही इन दोनों में अन्तर है।' ॥छव्वीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र (ख) भगवतो. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3572 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org